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________________ V 0930-00-o SIMILYANVallhalvaliBlhalalalalalaLY avaiyalal षडावश्यक-विचार [यह प्रन्थ भी कैराना जिला मुज़फ्फरनगरके बड़े मन्दिरकी उसी षट्पत्रात्मक ग्रन्थ-प्रतिपरसे उपलब्ध हुअा है जिसपरसे गत किरणमें प्रकाशित 'परमात्मराज-स्तोत्र' और उससे पहलेकी किरणोंमें प्रकाशित 'स्वरूप-भावना' और 'रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' उपलब्ध हुए थे और जिन सबको २० जनवरी सन् १९३३को नोट किया गया था। यह नव पद्योंका एक प्रकरण-ग्रन्थ है, जिनमेंसे पहले पद्यमें छह आवश्यकोंके १ सामायिक, २ स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान और ६ कायोत्सर्ग नाम देकर लिखा है कि इन क्रियाओंमें जो नीव वर्तमान होता है उसके संवर होता है-कर्मोंका श्रात्मामें अानाबंधना रुकता है । इसके बाद छह पद्योंमें छहों आवश्यकोंका आध्यात्मिक दृष्टिसे अच्छा सुन्दर स्वरूप दिया है, जो सहज-बोध-गम्य है। आठवें पद्यमें बतलाया है कि 'निजात्मतत्त्वमें अवस्थित हुअा जो योगी निरालस्य होकर (पूर्ण तत्परताके साथ) इस प्रकारसे षडावश्यक करता है उसके पापोंकी रोक होती हैपापासव रुकता है। अन्तके हवें पद्यमें उन चिह्नोंका निर्देश किया है जो ठीक अर्थमें षडावश्यक करने वालोंमें प्रकट होते हैं और वे हैं १ कालक्रमसे उदासीनता, २ उपशान्तता और ३ सरलता । मालूम नहीं इस प्रकरणके रचयिता कौन महानुभाव हैं । जिन विद्वानोंको इस विषयमें कुछ मालूम हो उन्हें उसको प्रकट करना चाहिए । -सम्पादक] सामायिके' स्तवे भत्तया वन्दनायां' प्रतिक्रमे । प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ॥ १॥ यत्सर्व-द्रव्य-सन्दर्भ-रागद्वेष-व्यपोहनम् । आत्म-तत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ॥२॥ रत्नत्रयमयं शुद्धं चेतनं चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवज्ञैः स्तूयते स्तवः ॥ ३ ॥ पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयमुत्तमम् । आत्मानं वन्दमानस्य वन्दनाऽकथि कोविदैः ॥ ४ ॥ कृतानां कर्मणां पूर्व सर्वेषां पाकमीयुषाम् । आत्मीयत्व-परित्यागः प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ ५ ॥ अगम्यागो-निमित्तानां भावानां प्रतिषेधनम् । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्ताऽऽत्माऽवलोकिभिः ॥ ६ ॥ ज्ञात्वा योऽचेतन कायं नश्वरं कर्म-निर्मितम् । न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति सः ॥ ७ ॥ यः षडावश्यकं योगी स्वात्म-तत्त्व-व्यवस्थितः । अनालस्यः करोत्येवं संवृतिस्तस्य रेफसाम ॥८॥ कालक्रमव्युदासित्वमुपशान्तत्वमार्जवम् । विज्ञेयानीति चिह्नानि षडावश्यककारिणाम् ॥ ९॥ नवपद्यानि षडावश्यक विचारस्य । विविक्तं स्तशुद्धं चेतनायकमुच्यते । O - O LALALAAAAAAA Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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