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अनेकान्त
उससे पृथक् होजावे तब जल स्वयं निर्मल होजाता है । तदुक्तं- 'पंकापाये जलस्य निर्मलतावत् ।' निर्मताके लिये हमें पङ्कको पृथक् करनेकी आवश्यकता है । अथवा जैसे जलका स्वभाव शीत है। अग्निके सम्बन्ध से जल में उष्णता पर्याय होजाती है उस समय जल, देखा जावे तो, उष्ण ही है । यदि कोई मनुष्य जलको शीत-स्वभाव मानकर पान कर लेवे तब वह नियमसे दाहभावको प्राप्त होजावेगा । अतः जलको शीत करने के वास्ते आवश्यकता इस बातकी है जो उसको किसी बर्तन में डालकर उसकी उष्णता पृथकू कर देना चाहिये । इसी प्रकार आत्मामें मोहोदय से रागादि परिणाम होते हैं वे विकृतभाव हैं । इनसे आत्मा नाना प्रकारके क्लेशोंका पात्र रहता है। उनके होनेका यी उपाय है जो वर्तमान में रागादिक हों उनमें उपादेयताका भाव त्यागे, यही आगामी न होनेमें मुख्य उपाय है । जिनके यह अभ्यास होजाता है उनकी परिणति सन्तोषमयी होजाती है। उनका जीवन शान्तिमय बीतता है, उनके एक बार ही पर पदार्थोंसे निजत्व बुद्धि मिट जाती है । और जब परमें निजत्व - की कल्पना मिट जाती है तब सुतरां राग-द्वेष नहीं होते । जहाँ आत्मामें राग-द्वेष नहीं होते वहीं पूर्ण अहिंसाका उदय होता है । अहिंसा ही मोक्षमार्ग है । वह आत्मा फिर आगामी अनन्त काल, जिस रूप परिणम गया, उसी रूप रहता है। जिन भगवानने यही अहिंसाका तत्त्व बताया है अर्थात जो आत्माएँ राग-द्वेष-मोहके अभाव से मुक्त होचुकी हैं उन्हींका
है । वह कौन है ? जिसके यह भाव होगये वही जिन है। उसने जो कुछ पदार्थका स्वरूप दर्शाया उस अर्थ प्रतिपादक जो शब्द हैं उसे जिनागम कहते हैं। परम्मर्थसे देखा जाय तो, जो श्रात्मा पूर्ण अहिंसक होजाती है उसके अभिप्रायमें न तो परके उपकार के भाव रहते हैं और न अनुपकारके भाव रहते हैं । अतः न उनके द्वारा किसीके हितकी चेष्टा होती है और न अहितकी चेष्टा होती है। किन्तु जो पूर्वोपार्जित कर्म है वह उदयमें आकर अपना रस देता है। उस कालमें उनके शरीर से जो शब्दवर्गणा निकलती
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हैं उनसे क्षयोपशमज्ञानी वस्तुस्वरूपके जाननेके अर्थ आगम-रचना करते हैं ।
आज बहुतसे भाई जैनोंके नामसे यह समझते हैं जो वह एक जाति विशेष है । यह समझना कहाँ तक तथ्य है, पाठकगण जानें। वास्तवमें जिसने आत्मा के विभाव-भावोंपर विजय पा ली वही जैन । यदि नामका जैनी है और उसने मोहादि कलङ्कोंको नहीं जीता तब वह नाम 'नामका नैनसुख आँखों का अन्धा' की तरह है । अतः मोह-विकल्पोंको छोड़ो और वास्तविक अहिंसक बनो ।
वास्तवमें तो बात यह है कि पदार्थ अनिर्वचनीय' है – कोई कह नहीं सकता। आप जब मिसरी खाते हो तब कहते हो मिसरी मीठी होती है-जिस पात्रमें रक्खी है वह नहीं कहता; क्योंकि जड है। ज्ञान ही चेतन है वह जानता है मिसरी मीठी है, परन्तु यह भी कथन नहीं बनता; क्योंकि यह सिद्धान्त है कि ज्ञान ज्ञेयमें नहीं जाता और ज्ञेय ज्ञानमें नहीं जाता । फिर जब मिसरी ज्ञानमें गई नहीं तब मिसरी मीठी होती है, यह कैसे शब्द कहा जासकता है ? अथवा जब ज्ञानमें ही पदार्थ नहीं आता तब शब्दसे उसका व्यवहार करना कहाँ तक न्यायसङ्गत है । इससे यह तात्पर्य निकला - मोह - परिणामोंसे यह व्यवहार है अर्थात जब तक मोह है तब तक ज्ञानमें यह कल्पना है । मोहके अभाव से यह सर्व कल्पना विलीन हो जाती है - यह असङ्गत नहीं । जब तक प्राणीके मोह है तब तक ही यह कल्पना है जो ये मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। और ये मेरी भार्या है मैं इसका पति हूँ । मोहके अभाव में यह सर्व व्यवहार विलीन होजाते हैं— जब यह आत्मा मोहके फन्दमें रहता है तब नाना कल्पनाओं की सृष्टि करता है, किसी को हेय और किसीको उपादेय मानकर अपनी प्रवृत्ति बनाकर इतस्ततः भ्रमण करता है । मोहकें अभाव में आपसे आप शान्त होजाता है। विशेष क्या लिखूं, इसका मर्म वे ही जानें जो निर्मोही हैं, अथवा वे ही क्या जानें, उन्हें विकल्प ही नहीं ।
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