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________________ पूज्य की गणेशप्रसादजीके हृदयोद्गार [हालमें पूज्य वर्णी गणेशप्रसादजीका एक मार्मिक पत्र मुझे मुरार (ग्वालियर)से प्राप्त हुआ है, जिसमें उन्होंने मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके कार्योंके प्रति अपना हार्दिक प्रेम प्रदर्शित करते हुए अपने कुछ हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, जो सारे जैन समाजके जानने योग्य हैं । अतः उनका वह पूरा पत्र यहाँ प्रकाशित किया जाता है । पाठक देखेंगे कि पूज्य वर्णीजीको मुख्तार सा के अनुसन्धान-कार्य कितने अधिक प्रिय हैं और वे उन्हें कितना अधिक पसन्द करते हैं तथा उनके इस अनुसन्धान विभागको स्थायित्व प्राप्त होनेकी कितनी शुभ भावनाअोंको अपने हृदयमें स्थान दिये हुए हैं। क्या ही अच्छा हो यदि जैन समाज वर्णीजीके इन हृदयोद्गारोंके मर्मको समझे, उनकी भावनाको 'भावनामात्र' न रहने दे और न उन्हें फिरसे यह कहनेका अवसर ही दे कि 'हमारे भाव तो मन ही में विलय जाते हैं।' -दरबारीलाल कोठिया श्रीयुत कोठियाजी महोदय, दर्शनविशुद्धिः। आपके उत्सवको देखलूं । परन्तु यह इष्ट नहीं जो केवल नाटक हो, कुछ कार्य हो। इस विभागकी पत्र आया। समाचार जाने । बाबूजी (मुख्तार महती आवश्यकता है। परन्तु इसकी पूर्ति कैसे हो, जुगलकिशोरजी) का कार्य तो मुझे इतना प्रिय है जो यह समझमें नहीं आता-समझमें नहीं आता, इसका उसके अर्थ अब भावना-मात्र रह गई है । ऐसे कार्यों- यह अर्थ है जो समाजने अभी इस विषयपर मीमांसा के लिये तो उनकी इच्छानुकूल पुष्कल द्रव्य होता नहीं की। केवल ऊपरी-ऊपरी बातोंपर इसका समय और कमसे कम १० विद्वान रहते जिन्हें इच्छित द्रव्य जाता है। अन्तमें यही कहना पड़ता हैदिया जाता । सालमें उनें २ वार छुट्टी दी जाती १ त्वं चेन्नीचजनानुरागरभसादस्मासु मन्दादरः । मास जाड़ामें १ मास गर्मी में । जहाँपर यह तत्त्वानु- का नो मानद मानहानिरियती भूः किं त्वमेव प्रभुः ।। ' संधान होता वहीं पर १ स्थानपर उनका भोजन गुजापुञ्जपरम्परापरिचयाभिल्लीजनैरुज्झितं ।। होता। वे सिवाय तत्त्वानुसंधानके अन्य कथा न मुक्तादाम न धारयन्ति किमहो कण्ठे कुरङ्गीदृशः ।। करते । १ वृहत्स्थान होता जहाँपर सब ऋतुके आ० शु० चि० अनुकूल स्थान होता। इस कार्यके लिये कमसे कम गणेश वर्णी १० लाख रुपया होता उसके ब्याजसे यह कार्य चलता। यद्यपि यह होना कठिन नहीं परन्तु हमारी दृष्टि . नोट-अतः हमारा कहना बाबूजी (मुख्तार तो जड़वादके पुष्ट करने में लग रही है-अतः हमारे जुगलकिशोरजी) से कह दो। आपके बड़े २ धनाढ्य भाव तो मन ही में विलय जाते हैं । थोथा सभापति मित्र हैं । वे कब आपकी इच्छाकी पूर्ति करेंगे ? आप बननेसे जलविलोचनके सदृश प्रयास है । कोई ऐसा का जीवन ४ या ६ वर्ष ही तो रहेगा। यदि आपके व्यक्ति तलाशो जो इसकी पूर्तिकर सुयशका भागी समक्ष इन लोगोंने कुछ न किया तब पीछे क्या करेंगे? हो । हाँ यह मेरेको भी इष्ट है जो १ वार मैं भी ... (ज्येष्ठ सुदि) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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