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________________ 216 अनेकान्त [ वर्ष 9. विलक्षण सामान्य-विशेषरूप वस्तुको पद प्रधान और अनुक्त तुल्यं यदनेवकारं व्यावृत्यभावानियम-द्वयेऽपि / गौणभावसे प्रकाशित करता हुआ यथार्थताको प्राप्त पर्यायभावेऽन्यतराप्रयोगस्तत्सर्वमन्यच्युतमात्म-हीनम् // 42 // होता है; क्योंकि ज्ञाताकी उस पदसे उसी प्रकारकी 'जो पद एवकारसे रहित है वह अनुक्ततुल्य हैवस्तुमें प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है, प्रत्यक्षादि न कहे हुएके समान है-; क्योंकि उससे (कर्तृ-क्रिया प्रमाणोंकी तरह / ' विषयक) नियम-द्वयके इष्ट होनेपर भी व्यावृत्तिका यदेवकारोपहितं पदं तदस्वार्थतः स्वार्थमवच्छिनत्ति। अभाव होता है-निश्चयपूर्वक कोई एक बात न कहे पर्याय-सामान्य-विशेष-सर्व पदार्थहानिश्च विरोधिवत्स्यात् // 41 जानेसे प्रतिपक्षकी निवृत्ति नहीं बन सकती-तथा (व्यावृत्तिका अभाव होने अथवा प्रतिपक्षकी निवृत्ति 'जो पद एवकारसे उपहित है-अवधारणार्थक , न हो सकनेसे) पदोंमें परस्पर पर्यायभाव ठहरता 'एव' नामके निपातसे विशिष्ट है; जैसे 'जीव एव' / है, पर्यायभावके होनेपर परस्पर प्रतियोगी पदोंमें (जीव ही)-वह अस्वार्थसे स्वार्थको (अजीवत्वसे से भी चाहे जिस पदका कोई प्रयोग कर सकता है जीवत्वको) [जैसे] अलग करता है- अस्वार्थ और चाहे जिस पदका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभि(अजीवत्व) का व्यवच्छेदक है-[वैसे] सब स्वार्थ धेयभूत वस्तुजात अन्यसे च्युत-प्रतियोगीसे रहित पर्यायों (सुख-ज्ञा नादिक), सब स्वार्थसामान्यों (द्रव्यत्व -होजाता है और जो प्रतियोगीसे रहित होता है चेतनत्वादि) और सब स्वार्थविशेषों (अभिधानाs वह आत्महीन होता है-अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक विषयभूत अनन्त अर्थपर्यायों) सभीको अलग करता नहीं हो सकता / इस तरह भी पदार्थकी हानि है-उन सबका भी व्यच्छेदक है, अन्यथा उस एक पदसे ही उनका भी बोध होना चाहिये, उनके लिये ठहरती है।' व्याख्या-उदाहरणके तौरपर 'अस्ति जीवः' इस अलग-अलग पदोंका प्रयोग (जैसे मैं सुखी हूँ , ज्ञानी वाक्यमें 'अस्ति' और 'जीवः' ये दोनों पद एवकारसे हूं, द्रव्य हूँ, चेतन हूँ, इत्यादि) व्यर्थ ठहरता है रहित हैं / 'अस्ति' पदके साथ अवधारणार्थक एव' और इससे (उन क्रमभावी धर्मों-पर्यायों, सहभावी शब्दके न होनेसे नास्तित्वका व्यवच्छेद नहीं बनता धर्मों-सामान्यों तथा अनभिधेय धर्मों-अनन्त अर्थ और नास्तित्वका व्यवच्छेद न बन सकनेसे 'अस्ति' पर्यायोंका व्यवच्छेद-भाव-होनेपर) पदार्थकी / पदके द्वारा नास्तित्वका भी प्रतिपादन होता है, और (जीव पदके अभिधेयरूप जीवत्वकी) भी हानि उसी इस लिये अस्ति पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न प्रकार ठहरती है जिस प्रकार कि विरोधी (अजीवत्व) की हानि होती है क्योंकि स्वपर्यायों आदिके रहनेसे वह अनुक्ततुल्य होजाता है / इसी तरह जीव अभावमें जीवादि कोई भी अलग वस्तु संभव का व्यवच्छेद नहीं बनता और अजीवत्वका पदके साथ 'एव' शब्दका प्रयोग न होनेसे अजीवत्वनहीं हो सकती। व्यवच्छेद न बन सकनेसे जीव पदके द्वारा अजीवत्व(यदि यह कहा जाय कि एवकारसे विशिष्ट जीव का भी प्रतिपादन होता है, और इस लिये 'जीव' पद अपने प्रतियोगी अजीव पदका ही व्यवच्छेदक पदके प्रयोगमें कोई विशेषता न रहनेसे वह अनुक्त. होता है-अप्रतियोगी (स्वपर्यायों, सामान्यों तथा तुल्य होजाता है / और इस तरह अस्ति पदके द्वारा विशेषोंका नहीं; क्योंकि वे अप्रस्तुत-अविवक्षित नास्तित्वका भी और नास्ति पदकं द्वाग अस्तित्वका होते हैं, तो ऐसा कहना एकान्तवादियोंके लिये ठीक भी प्रतिपादन होनेसे तथा जीव पदके द्वारा अजीव नहीं है; क्योंकि इससे स्याद्वाद (अनेकान्तवाद)के अर्थका भी और अजीव पदके द्वारा जीव अर्थका भी अनुप्रवेशका प्रसङ्ग आता है, और इससे इनके प्रतिपादन होनेसे अस्ति-नास्ति पदोंमें तथा जीव. एकान्त सिद्धान्तकी हानि ठहरती है।) अजीव पदोंमें घट-कुट (कुम्भ) शब्दोंकी तरह परस्पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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