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________________ किरण ६] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने पर्यायभाव ठहरता है । पर्यायभाव होनेपर परस्पर भेदका-तब अस्तित्व बनता ही नहीं।' प्रतियोगी पदोंमें भी सभी मानवोंके द्वारा, घट-कुटः व्याख्या-उदाहरणके तौरपर-जो सत्ताऽद्वैतशब्दोंकी तरह, चाहे जिसका प्रयोग किया जा सकता (भावैकान्त)वादी यह कहता है कि 'अस्ति' पदका है । और चाहे जिसका प्रयोग होनेपर संपूर्ण अभिधेय अस्तित्व 'नास्ति' पदके अभिधेय नास्तित्वसे अभिधेयभूत वस्तुजात अन्य प्रतियोगीसे च्युत सर्वथा अभेदी (अभिन्न) है उसके मतमें पदों तथा (रहित) होजाता है अर्थात् अस्तित्व नास्तित्वसे अभिधेयोंका परस्पर विरोध भेदका कर्ता है; क्योंकि सर्वथा रहित होजाता है और इससे सत्ताऽद्वैतका सत्ताऽद्वैत मतमें सम्पूर्ण विशेषों-भेदोंका अभाव होने प्रसङ्ग आना है । नास्तित्वका सर्वथा अभाव होनेपर से अभिधान और अभिधेयका विरोध है-दोनों सत्ताऽद्वैत आत्महीन ठहरता है; क्योंकि पररूपके घटित नहीं होसकते, दोनोंको स्वीकार करनेपर त्यागके अभावमें स्वरूप-ग्रहणकी उपपत्ति नहीं बन अद्वैतता नष्ट होती है और उससे सिद्धान्त-विरोध सकती-घटके अघटरूपके त्याग बिना अपने स्वरूप- घटित होता हैं । इसपर यदि यह कहा जाय कि की प्रतिष्ठा नहीं बन सकती । इसी तरह नास्तित्वके 'अनादि-अविद्याके वशसे भेदका सद्भाव है इससे सर्वथा अस्तित्वरहित होनेपर शून्यवादका प्रसङ्ग दोष नहीं तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि आता है और अभाव भावके बिना बन नहीं सकता, विद्या-अविद्या भेद भी तब बनते नहीं। उन्हें यदि इससे शून्य भी आत्महीन ही होजाता है । शून्यका माना जायगा तो द्वैतताका प्रसङ्ग आएगा और उससे स्वरूपसे भी अभाव होनेपर उसके पररूपका त्याग सत्ताऽद्वैत सिद्धान्तको हानि होगी-वह नहीं बन असंभव है-जैसे पटके स्वरूप ग्रहणके अभावमें सकेगा । अथवा अस्तित्वसे नास्तित्व अभेदी है यह शाश्वत अपटरूपके त्यागका असंभव है। क्योंकि कथन केवल आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी वस्तुका वस्तुत्व स्वरूपके ग्रहण और पररूपके त्याग- है (ऐसाच' शब्दके प्रयोगसे जाना जाता है); क्योंकि .. की व्यवस्थापर ही निर्भर जब भेदका सर्वथा अभाव है तब अस्तित्व और कालकी अपेक्षा अवस्तु होजाती है । सकल स्वरूपसे नास्तित्व भेदोंका भी अभाव है। जो मनुष्य कहता शून्य जुदी कोई अवस्तु संभव ही नहीं है। अत: है कि 'यह इससे अभेदी है। उसने उन दोनोंका कोई भी वस्तु जो अपनी प्रतिपक्षभूत अवस्तुसे कथंचित् भेद मान लिया, अन्यथा वह वचन बन वर्जित है वह अपने आत्मस्वरूपको प्राप्त नहीं होती। नहीं सकता, क्योंकि कथंचित् (किसी प्रकारसे) भी . 'यदि (सत्ताद्वैतवादियों अथवा सर्वथा शून्य- भेदीके न होनेपर भेदीका प्रतिवेध-अभेदी कहनावादियोंकी मान्यतानुसार सर्वथा अभेदका प्रावलम्बन विरुद्ध पड़ता है-कोई भेदी ही नहीं तो अभेदी (न । जाय कि पद-अस्ति या नास्ति- भेदी) का व्यवहार भी कैसे बन सकता है ? नहीं (अपने प्रतियोगि पदके साथ सर्वथा) अभेदी है- बन सकता। और इसलिये एक पदका अभिधेय अपने प्रतियोगि यदि यह कहा जाय कि शब्दभेद तथा विकल्पपदके अभिधेयसे च्युत न होनेके कारण वह आत्म- भेदके कारण भेदी होनेवालोंका जो प्रतिषेध है वह हीन नहीं है तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उनके स्वरूपभेदका प्रतिषेध है तब भी शब्दों और उस पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विकल्पोंके भेदको स्वयं न चाहते हुए भी संज्ञीके विरोधी भी होजाता है; क्योंकि किसी भी विशेषका- भेदको कैसे दूर किया जायगा, जिससे द्वैतापत्ति होती १ "वस्त्वेवाऽवस्तुतां याति प्रक्रियाया विपर्ययात् ।” है ? क्योंकि संज्ञीका प्रतिषेध प्रतिषेध्य-संज्ञीके विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्तद्योतनः स्याद् णतो निपातः। अस्तित्व बिना बन नहीं सकता। इसके उत्तरमें यदि विपाद्य-सन्धिश्च तथाऽगभावादवाच्यता प्रायस लोपहेतुः ।।४३ यह कहा जाय कि 'दूसरे मानते हैं इसीसे शब्द और तह परदव्य -यंत्र .. . .. .. ... . . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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