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________________ २१८ अनेकान्त [वर्ष ९ विकल्पके भेदको इष्ट किया गया है, इसमें कोई दोष 'सर्वथा अवक्तव्यता (युक्त नहीं है, क्योंकि वह) नहीं, तो यह कथन भी नहीं बनता; क्योंकि अद्वैता- श्रायस-मोक्ष अथवा आत्महितके लोपकी कारण हैवस्थामें स्व-परका (अपने और परायेका) भेद ही जब क्योंकि उपेय और उपायके वचन बिना उनका इष्ट नहीं तब दूसरे मानते हैं यह हेतु भी सिद्ध नहीं उपदेश नहीं बनता, उपदेशके बिना श्रावसके उपायहोता, और असिद्ध-हेतु-द्वारा साध्यकी सिद्धि बन का-मोक्षमार्गका अनुष्ठान नहीं बन सकता और नहीं सकती। इसपर यदि यह कहा जाय कि 'विचारसे उपाय (मार्ग)का अनुष्ठान न बन सकनेपर उपेयपूर्व तो स्व-परका भेद प्रसिद्ध ही है तो यह बात भी श्रायस (मोक्ष)की उपलब्धि नहीं होती । इसतरह नहीं बनती; क्योंकि अद्वैतावस्थामें पूर्वकाल और अवक्तव्यता श्रायसके लोपकी हेतु ठहरती है। अतः अपरकालका भेद भी सिद्ध नहीं होता। अतः सत्ता- स्यात्कार-लांछित एवकार-युक्त पद ही अर्थवान् है द्वैतकी मान्यतानुसार सर्वथा भेदका अभाव माननेपर ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए, यही तात्पर्यात्मक 'अभेदी' वचन विरोधी ठहरता है, यह सिद्ध हुआ। अर्थ है।' इसी तरह सर्वथा शून्यवादियोंका नास्तित्वसे अस्तित्व- (इसतरह तो सर्वत्र 'स्यात्' नामक निपातके को सर्वथा अभेदी बतलाना भी विरोधदोषसे दूषित प्रयोगका प्रसङ्ग आता है, तब उसका पद-पदके प्रति है, ऐसा जानना चाहिए। अप्रयोग शास्त्रमें और लोकमें किस कारणसे प्रतीत (अब प्रश्न यह पैदा होता है कि अस्तित्वका होता है ? इस शङ्काका निवारण करते हुए आचार्य विरोधी होनेसे नास्तित्व धर्म वस्तुमें स्याद्वादियों-द्वारा महोदय कहते हैं-) कैसे विहित किया जाता है ? क्योंकि अस्ति पदके तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोगः सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्तिः । साथ 'एव' लगानेसे तो 'नास्तित्व'का व्यवच्छेद- इति त्वदीया जिननाग! दृष्टिः पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ॥४४ अभाव होजाता है और 'एव'के साथमें न लगानेसे (शास्त्र में और लोकमें 'स्यात' निपातका) जो उसका कहना ही अशक्य होजाता है क्योंकि वह पद अप्रयोग है-हरएक पदके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग अनुकतुल्य होता है। इससे तो दूसरा कोई प्रकार न नहीं पाया जाता-उसका कारण उस प्रकारकाबन सकनेसे अवाच्यता-अवक्तव्यता ही फलित स्यात्पदात्मक प्रयोग-प्रकारका-प्रतिज्ञाशय हैहोती है। तब क्या वही युक्त है ? इस सब शङ्काके समा- प्रतिज्ञा प्रतिपादन करनेवालेका अभिप्राय सन्निहित धान-रूपमें ही आचार्य महोदयने कारिकाके अगले है। जैसे शास्त्रमें 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षतीन चरणोंकी सृष्टि की है, जिनमें वे बतलाते हैं-) मार्गः' इत्यादि वाक्यों में कहींपर भी 'स्यात्' या 'एव' ___'उस विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' नामका शब्दका प्रयोग नहीं है परन्तु शास्त्रकारोंके द्वारा निपात (शब्द) है जो स्याद्वादियोंके द्वारा संप्रयुक्त अप्रयुक्त होते हुए भी वह जाना जाता है; क्योंकि किया जाता है और गौणरूपसे उस धर्मका द्योतन उनके वैसे प्रतिज्ञाशयका सद्भाव है । अथवा (स्याद्वाकरता है-इसीसे दोनों विरोधी-अविरोधी (नास्तित्व दियोंके) प्रतिषेधकी-सर्वथा एकान्तके व्यवच्छेदकी अस्तित्व जैसे) धर्मोका प्रकाशन-प्रतिपादन होते -युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित होजाती है क्योंकि हुए भी जो विध्यर्थी है उसकी प्रतिषेधमें प्रवृत्ति नहीं 'स्यात्' पदका आश्रय लिये विना कोई स्याद्वादी नहीं होती। साथ ही वह स्यात् पद विपक्षभूत धर्मकी बनता और न स्यात्कारके प्रयोग विना अनेकान्तकी सन्धि -संयोजनास्वरूप होता है-उसके रहते सिद्धि ही घटित होती है; जैसे कि एवकार के प्रयोग दोनों धर्मों में विरोध नहीं रहता; क्योंकि दोनोंमें विना सम्यक् एकान्तकी सिद्धि नहीं होती। अतः अङ्गपना है और स्यात्पद उन दोनों अङ्गोंको जोड़ने स्याद्वादी होना ही इस बातको सूचित करता है कि वाला है। उसका आशय प्रतिपदके साथ 'स्यात्' शब्दके प्रयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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