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सम्पादकीय
निस्पृही कार्यकर्त्ता
बीसवीं शताब्दीरूपी वधूका डोला अभी आया भी नहीं था कि उसके स्वागत-समारोहके लिये समूचे भारत में इस छोरसे उस छोरतक उत्साहकी लहर दौड़ गई । जनतामें सेवा, तप, त्याग, बलिदान के भाव अङ्कुरित हो उठे, और बड़े ही लाड़-प्यार और चावसे जीवन-सन्देशनी नववधूका स्वागत हुआ । वह अपने साथ राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिकचेतना दहेजस्वरूप लाई । परिणाम यह हुआ कि मुसलमान, ईसाई, सनातनी, आर्य्य, सिक्ख सम्प्रदायोंसे निस्पृही कार्यकर्त्ताओं के जत्थे के जत्थे कार्यक्षेत्रमें आने लगे ।
जैन समाज में भी एक होड़ सी मच गई। राजा लक्ष्मणदास और डिप्टी चम्पतराय आदि महासभा की स्थापना कर ही चुके थे। पं० गोपालदास वरैया भी मोरेना में श्रासन मारकर बैठ गये और न्यायाचार्य गणेशप्रसादजी व बाबा भागीरथदासजी वर्णी बनारसमें धूनी रमा बैठे | श्री अर्जुनलाल सेठी चौमूँ ठिकानेकी दीवानगिरीका मोह त्याग जयपुरमें करो या मरोका मन्त्र जपने लगे । महात्मा भगवानदीन हस्तिनागपुर- श्राश्रमको गुरुकुल - काँगड़ी बना देनेकी धुन में स्टेशनमास्टरीको तिलाञ्जलि दे आये । बा० शीतलप्रसादजी लखनवी गृही- जीवनको धता बताकर जोगी बन गये, और सारे जैन समाज में अलख जगा दी । मगनबहन, ललिताबाई और चन्दा सुकुमारी पति वियोग में न झुलसकर जैन-बद्दनों को सीता, अञ्जना, राजमती बनानेमें लग गई । जैनी ज्ञानचन्द और पं० पन्नालाल बाकलीवालने साहित्योद्वारका बीड़ा उठाया देवबन्द के तीन सपूतों-बा० सूरजभानजी वकील, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, बा० ज्योतिप्रसादजी जैन—ने देवबन्दसे ही
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जिनवाणी - माताको बन्दी बनाकर रखने वालोंके गढ़ों पर समीक्षाओं, परीक्षाओं और आलोचनाओंके वाले भी हड़बड़ाकर उठ बैठे । सेठ माणिकचन्द जैन वे गोले बरसाये कि कुम्भकरणी नीदको मात करने
होस्टलोंकी दाराबेल डालने में जुटे तो आके देव जैन भरी जवानीमें शास्त्रोद्धारकी क़सम खा बैठे।
फिर नाथूराम प्रेमी, दयाचन्द गोयलीय, कुमार देवेन्द्रप्रसाद, रिषभदास वकील, माणिकचन्द खंडवा का युवक हृदय कब चुप रह सकता था ? ये कार्यक्षेत्र में युवकोचित ही ढङ्गसे आये, जिन्हें देख जनता साधुवाद कह उठी । इन सब अलबेले कर्मवीरों को नजर न लग जाए, इस आशङ्का से प्रेरित जैनी जियालालजी भी अपने ज्योतिष- पिटारे के बलपर दुनियाए बदनज़रकी नज़र से बचानेको निकल पड़े ।
इन निस्पृही कार्यकर्त्ताओंकी लगन और दीवा - नगी देखकर जुगमन्दरदास और चम्पतराय अपनी बैरिस्टरी भूलकर यकायक दीवाने होगये ।
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चारों ओर समाजमें जीवन ज्योति प्रज्वलित हो उठी । गाँव-गाँवमें पाठशालाएँ खुल गई । पचासों विद्यालय और हाईस्कूल स्थापित होगये । सैकड़ों पुस्तकालयोंका उद्घाटन हुआ। शहर-शहर में सभासमितियाँ बनीं । पत्र निकले, जैन-साहित्य प्रकाशमें
या ट्रेक्टों के ढेर लग गये । इन निस्पृही सेवकों के सम्मान में श्रीमन्तोंने रुपयोंकी थैलियाँ खोल दीं । लेनेवाले थक गये पर श्रीमन्त आज भी थैलियों के मुँह खोले हुए अपने निस्पृही कार्यकर्त्ताओं की बाट में बैठे हुए हैं। क्या श्रेयाँसको जैसे ऋषभनाथ और भिलनीको जैसे राम घर बैठे मिल गये थे, इनको भी अपनी समाज के श्रमिट, अडोल, निस्पृही कार्यकर्त्ताओं के फिर दर्शन होंगे ? क्या इन्हें एक बा
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