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________________ जैनपुरातन अवशेष [विहङ्गावलोकन ] ( लेखक - मुनि कान्तिसागर ) तक्षण कलाके संरक्षण और विकास में जैन समाज बहुत बड़ा योगदान दिया है जिसकी स्वर्णिम गौरव गरिमाकी पताकास्वरूप आज भी अनेकों सूक्ष्मातिसूक्ष्म कला कौशलके उत्कृष्टतम प्रतीक-सम पुरातन मन्दिर, गृह-प्रतिमाएँ विशालस्तंभादि बहुमूल्यावशेष बहुत ही दुरवस्था में अवशिष्ट हैं। ये प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के ज्वलंत दीपक - प्रकाशस्तम्भ हैं । वर्षोंका अतीत इनमें अन्तर्निहित है | बहुत समय तक धूप-छांहमें रहकर इन्होंने अनुभव प्राप्त किया है । वे न केवल तात्कालिक मानव-जीवन और समाजके विभिन्न पहलुओंको ही आलोकित करते हैं अपितु मानों वे जीर्ण-विशीर्ण खण्डहरों, वनों और गिरिकन्दराओं में खड़े खड़े अपनी और तत्कालीन भारतीय सांस्कृतिक परि 'स्थितियोंकी वास्तविक कहानी, अतिगम्भीररूपसे पर मूकवाणीमें, उन सहृदय व्यक्तियोंको श्रवण करा रहे है जो पुरातन - प्रस्तरादि अवशेषोंमें अपने पूर्वपुरुषों की अमरकीतिलताका सूक्ष्मावलोकन कर स्वर्णतुल्य नवीन प्रशस्त मार्गकी सृष्टि करते हैं । यदि हम थोड़ा भी विचार करके उनकी ओर दृष्टि केन्द्रित करें तो बिदित हुए बिना नहीं रहेगा कि प्रत्येक समाज और जाति की उन्नत दशाका वास्तविक परिचय इन्हीं खण्डित अवशेषोंके गम्भीर अध्ययन, मनन और अन्वेषणपर अवलम्बित है । मेरा तो मानना है कि हमारी सभ्यता की रक्षा और अभिवृद्धिमें किसी प्राचीन साहित्यादिक ग्रन्थोंसे इनका स्थान किसी से भी कम नहीं, स्थायित्व तो साहित्यादिसे इनमें अधिक है। साथ ही साथ यह भी कहना पड़ेगा कि साहित्यकार जिन उदात्त भावोंका व्यक्तीकरण बहुत Jain Education International स्थान रोककर करता है, जबकि कलाकार जड़ वस्तुओं पर अत्यन्त सीमित स्थान में अपनी छैनी द्वारा उन भावनाओंको विश्वलिपिके रूपमें व्यक्त करता है । निरक्षर जनता भी इस विश्वलिपिसे ज्ञान प्राप्त कर लेती है ! एक समय था जब इन कलाकारोंका समादर भारतमें सर्वत्र था, सांस्कृतिक अमरतत्त्वोंके प्रचारण एवं संरक्षण में वे सबसे अधिक दायित्व रखते थे । लौकिक जनोंकी रुचि और परिष्कृत विचारधारा के अक्षुण्ण प्रवाहको वे जानते थे । उनका जीवन सात्विक और मनोवृत्तियाँ आज के कलाकारोंके लिये आदर्शकी वस्तु थीं । इन्हीं किन्हीं कारणोंसे प्राचीन भारतीय साहित्य में इनको उच्च स्थान प्राप्त था। जैनाचार्य श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी - जो अपने समयके बहुत बड़े दार्शनिक और प्रतिभासम्पन्न विद्वान् प्रन्थकार थे-ने अपने षोडश प्रकरणोंमें कलाकारोंके सम्बन्धमें जो विचार व्यक्त किये हैं वे हमारे लिये बहुत ही मूल्यवान् हैं । वे लिखते हैं "कलाकारको यह न समझना चाहिये वह हमारा वेतन भोगी भृत्य है पर अपना सखा और प्रारम्भीकृत कार्य में परमसहयोगी मानकर उनको आवश्यक सभी सुविधाएँ प्रदान कर सदैव सन्तुष्ट रखना चाहिये, उनको किसी भी प्रकारसे ठगना नहीं चाहिये, वेतन ठीक देना चाहिये, उनके भाव दिन प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त हों वैसा आचरण करनेसे ही वे उच्चकी रचनाका निर्माण कर समाजके आध्यात्मिक कल्याण में आंशिक सहायक प्रमाणित हो सकते हैं ।" और ग्रन्थोंमें भी इन्हीं भावोंको पुष्ट करने वाले अन्यान्य उद्धरण उपलब्ध हैं पर उनकी यहाँ विवक्षा नहीं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527256
Book TitleAnekant 1948 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size9 MB
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