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किरण ६]
जैनपुरातन अवशेष
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उनपर इस दृष्टिसे आजकल किसीने अध्ययन जिनके परिकर या पासमें एक ही चट्टानपर अधिष्ठाकरनेका कष्ट नहीं उठाया, सुना है वहाँ जैनोंकी यक खुदे हुए हैं। परन्तु कुछ कालके बाद स्वतन्त्र तदाद भी काफ़ी है । तुर्रा यह कि बड़े-बड़े कलाकारों प्रतिमाएँ बनने लगी, उपासकोंकी भक्ति ही इनके का वह आवास है।
निमोणका प्रधान कारण है । जैनमन्दिरके गर्भगृहके ___"धातुप्रतिमाएँ-विकास और पतन" शीर्षक दाएँ-बाएँ और अक्सर छोटे-छोटे गवाक्षोंमें इनकी निबन्ध मैं लिख रहा हूँ । अतः यहाँ नहीं लिखा। स्थापना रहती है। कुछ प्राचीन पद्यावती, सिद्धायिका
३ (इ) इस विभागकी सामग्री भारतमें बहुत ही देवी और अम्बिकाकी ऐसी भी मूर्तियाँ देखी हैं कम मिलती है, इसका कारण मुझे तो यही प्रतीत जिनमें प्रधानता तो इनकी रहती है, पर इनके मस्तक होता है कि काष्ठका प्रयोग जिस समय भवननिर्माण पर पार्श्वनाथ, महावीर और नेमनाथजीकी प्रतिमाएँ आदि कलामें विशेष रूपसे होता था उन दिनों जैन क्रमशः हे। रोहणखेड आदि नगरोंमें स्वतन्त्र यक्षप्रतिमाओंके निर्माणमें काष्ठका उपयोग इसलिये वर्जित यक्षिणीकी खण्डित प्रतिमाएँ भी पाई जाती हैं । कहीं कर दिया होगा, क्योंकि वह तो अल्पायु है-पाषाण कहीं जिनवेदीके ठीक निम्नभागमें इनको देखते हैं । अधिक समय टिक सकता है । फिर भी प्राचीनका- इसमें कोई सन्देह ही नहीं, प्राचीन जैन प्रतिमालीन कुछ काष्ठ-प्रतिमाएँ मिली हैं। मैंने कलकत्ता विधानमें इनका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। धातु विश्वविद्यालयके आशुतोष - आश्चर्यगृहमें एक जैन तथा पाषाण दोनोंपर ये खोदी जाती थीं। मैं तो इन प्रतिमा काष्ठपर खुदी हुई देखी है जो बङ्गालसे ही कलात्मक प्रतिमाओंका महत्व केवल जैन होनेके नाते प्राप्त की गई थी, इसका काल मेरे मित्र डी०पी० घोषने ही नहीं समझा, पर भारतीय कलाके सुन्दर सिद्धान्त २००० वर्ष पूर्व निश्चित किया है। काष्ठको देखनेसे और विविध उपकरणोंका जो क्रमिक विकास इनमें मालूम होता है कि वह बहुत वर्षों तक जलमग्न रहा पाया जाता है वह प्रत्येक एतद्विषयक गवेषीको होगा, क्योंकि उसमें सिकुड़न बहत है। बीचके भागमें आकृष्ट किये बिना नहीं रहता; कारण कि वस्त्र और रेखाएँ ही रेखाएँ दीखती हैं । अमेरिकास्थित पेनीसि- केश-विन्यास, शारीरिक गठन, आभूषण, विविध लटोनिया विश्वविद्यालयके संस्कृत विभागके और शस्त्रास्त्र, चेहरा, आँखोंका सुन्दर रजतकटाव, कलाके अध्यक्ष तथा जैन सहित्यके विशेषज्ञ सुप्रसिद्ध आदि कुछ ऐसी विशेषताएँ इनमें हैं जिनका महत्व कला-समीक्षक श्रीयुत डा० विलियम नॉमन ब्रॉउनसे भारतीय कला और कौशलके इतना अधिक समीप ता० १-१-४८ को मैंने कलकत्तामें काष्ठकी जैन प्रति- है कि हम उनकी कदापि उपेक्षा नहीं ही कर सकते । माओंके सम्बन्धमें वार्तालाप किया था, आपने कहा जैनसमाजके बहुत ही कम व्यक्तियोंको उनके विविध कि हमारे देशमें भी चार जैन काष्ठप्रतिमाएँ आजतक रूपों और वाहनोंके शास्त्रीय ज्ञानका पता है । नासिक उपलब्ध हुई हैं, जिनका समय १५०० वर्ष पूर्वका है। जैनमन्दिरमें एक स्फटिक रत्नकी जैन प्रतिमा है सम्भव है यदि गवेषणा की जाय तो और भी काष्ठ जिसका रजत परिकर सुन्दर और अलग है । इनके प्रतिमाएँ मिल सकती हैं । जैन वास्तुशास्त्र में काष्ठ साथ गोमेदकी और नीलमकी प्रतिमाएँ हैं । एक तो प्रतिमाका उल्लेख आया है। चन्दन आदि वृक्षोंका मानो गणेश ही हैं। मुझसे कुछ लोगोंने कहा यह उसमें प्रयोग होता है।
गणेशजीकी पूजा अपन कबसे करते आये हैं ? यह ३ (ई) जैन स्थापत्यकलामें तीर्थकरोंकी प्रतिमाओं गणेश नहीं पर पार्श्व-यक्ष हैं। इनके रूपमें शास्त्रीय के बाद उनके अधिष्टायक यक्ष-यक्षिणीकी मूर्तियोंका सूक्ष्मान्तर है, जो सर्वगम्य नहीं। इससे आगे चल स्थान आता है। प्राचीनकालकी कुछ तीर्थकर प्रतिमाएँ कर अनर्थ खड़े होसकते हैं। एक बात मुझे स्पष्ट ऐसी भी देखनेमें आती हैं जो प्रस्तर-धातुकी हैं और कहनी चाहिए कि देवियोंकी प्रतिमाओंके कारण जैन
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