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किरण ६ ]
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वर्तमान हैं, जिनपर लाखों पृष्ठोंमें लिखा जाय तो कम है । मुझे तो प्रकृत निबन्ध में केवल जैनपुरातत्व के अंगीभूत जो अवशेष उपलब्ध होते हैं-नष्ट होने की प्रतीक्षामें हैं— उन्हींपर अपने त्रुटिपूर्ण विचार व्यक्त कर समाज के विद्वान और धनीमानी व्यक्तियोंका ध्यान अपनी सांस्कृतिक सम्पत्तिकी ओर आकृष्ट करना है और यही इस निबन्धका उद्देश्य है ।
जैनपुरातन अवशेष
आर्यावर्तका सम्भवतः शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँपर यत्किञ्चितरूपेण जैन- पुरातत्व के अवशेष उपलब्ध न होते हों, प्रत्युत कई प्रान्त और जिले तो ऐसे हैं जो जैनपुरातत्त्वकी सभी शाखाओंके पुरातनावशेषों को सुरक्षित रक्खे हुए हैं; क्योंकि सांस्कृतिक उच्चताके प्रतीक- सम इनके निर्माण में आर्थिक सहायक जैनोंने अपने द्रव्यका अन्य समाजापेक्षया सर्वाधिक व्यय कर जैन संस्कृतिकी बहुत अच्छी सेवा की है । बङ्गाल, मेवाड़ और मध्यप्रान्त आदि कुछ स्थान ऐसे हैं जहाँपर कालके महाचक्र के प्रभावसे आज जैनोंका निवास नहीं है पर जैनकला के मुखको समुज्ज्वल करने वाले मन्दिर, स्तम्भ, प्रतिमा या खंडहर विद्यमान हैं। ये पूर्वकालीन जैनों के निवासके प्रतीक हैं । एक समय था जब बङ्गाल जैन संस्कृति से सावित था, पूर्वी बङ्गालमें जैन प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं । कलकत्ता विश्वविद्यालयके प्रो० गोस्वामीने मुझे बताया था कि पहाड़पुरदिनाजपुर में दिगम्बर जैन प्रतिमाएँ निकली हैं वे प्राचीन कला-कौशल की दृष्टि से अध्ययनकी वस्तु हैं । (इन प्रतिमा-चित्रोंका प्रकाशन आ० स० इ० रि०में हो चुका हैं) ।
आज भी उस ओर जब कभी उत्खनन होता है तब जैनधर्मसे सम्बन्ध रखने वाली सामग्री निकलती
रहती है; पुरातत्व विभागवाले साधारण नोट कर इन्हें प्रकट कर देते हैं, वे बेचारे इन अवशेषोंकी विविधता और प्रसङ्गानुसार जो भव्यता है, किसके साथ क्या सम्बन्ध है आदि बातें ही आवश्यक साधनोंके अभाव से नहीं जान पाते हैं तो फिर करें भी तो क्या करें ?
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मेरे मित्र 'मोडर्नरिव्यु के बर्तमान संपादक श्रीमान् केदारनाथ चट्टोपाध्याय, जो पुरातत्त्वके अच्छे विद्वान हैं, बता रहे थे कि उनके गाँव बाँडाकी पहाड़ियोंमें बहुतसी जैन प्रतिमाएँ प्राप्त होती हैं जो रक्त पाषाणपर उत्कीर्णित हैं, इनके आगे वहाँकी जनता न जाने क्या-क्या करती है। पश्चिम बङ्गाल में सराकजातिके भाइयोंके जहाँ-जहाँपर केन्द्र हैं उनमें प्राचीन बहुतसी सुन्दर कलापूर्ण शिखरयुक्त मन्दिरप्रतिमाएँ सैकड़ों की संख्यामें उपलब्ध हैं । इन अवशेषों को मैंने तो देखा नहीं परन्तु मुनि श्री प्रभावविजयजी की कृपासे उनके फोटो अवश्य देखे, तबियत बड़ी प्रसन्न हुई । श्रीमान् ताजमलजी बोथरा - जो वर्तमान सराकजातिकी संस्थाके मन्त्री हैं-से मैं आशा करता हूँ कि वे सारे प्रान्तमें- जहाँ सराक बसते हैं — जहाँ कहीं भी जैन अवशेष हों उनके चित्र तो अवश्य ही लेलें । खोज की दुनिया से यह स्थान कोसों दूर है। कई ऐसे भी हैं जो प्राचीन स्मारक रक्षा कानूनमें न होने से उनके नाशकी भी शीघ्र संभावना है।
मेदपाट - मेवाड़ में भी कलाके अवतार-स्वरूप जैन मन्दिरोंकी संख्या बहुत बड़ी है, ये खासकर १४वीं शताब्दीकी बादकी तक्षरणकला से सम्बन्धित हैं। बड़े विशाल पहाड़ोंपर या तलहटीमें मन्दिर बने हैं जहाँ पर कहीं-कहीं तो जैनीके घरकी तो बात ही क्या की जाय मानवमात्र वहाँ है ही नहीं। ऐसे मन्दिरों में से लोग मूर्ति तो अवश्य ही उठा लेगये परन्तु प्रत्येक कमरोंमें जो लेख हैं उनकी सुधि आज तक किसीने नहीं ली। कहने को तो विजयधर्मसूरिजीने कुछ लेख अवश्य ही लिये थे पर उन्होंने लेखोंके लेनेमें तथा प्रकाशन में भी पक्षपातसे काम लिया, साम्प्रदायिक व्यामोहके कारण सर्व लेखों का संग्रह भी वे न कर सके, पुरातत्त्व के अभ्यासी के लिये यह बड़े कलङ्ककी बात है ।
अत्यन्त खेद की बात है कि उपर्युक्त साधनों पर न तो वहाँकी जैन जनताका समुचित ध्यान है और न वहाँकी सरकार ही कभी सचेष्ट रही है । अस्तु, अब ता प्रजातन्त्रीय राज्य है, मैं आशा करता हूं कि बाँके लोकप्रिय मन्त्री इस ओर अवश्य ध्यान देंगे ।
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