Book Title: Aagam 32 DEVENDRA STAV Moolam evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२] श्री देवेन्द्रस्तव (प्रकीर्णक) सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “देवेन्द्रस्तव” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com, M.Ed., Ph.D.) 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३२], प्रकीर्णकसूत्र- [९] "देवेन्द्रस्तव” मूलं एवं संस्कृतछाया ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “गणिविद्या” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [-]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया 'देवेन्द्रस्तव' प्रकीर्णक(९) प्रत * श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अर्थ-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रित। चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। दीप अनुक्रम प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः सवेरी-वेणीचंद सरचंद । शदं पुस्तकं मोहमयां निर्णयसागरमुद्रणालये कोळभाटवीथ्या-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । - वीर सं० २४५३. विक्रम सं० १९८३. सन १९२७. [वेतन रू.२-०-०. देवेन्द्रस्तव-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल "टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ३०७ मूलांक: ००१ ०८१ ३०२ गाथा: मङ्गलं, देविंद-पुच्छा ज्योतिष्क-अधिकार: जिनऋद्धि, उपसंहार: पृष्ठांक: ००४ ०१४ ०४३ 'देवेन्द्रस्तव' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. ०११ १६२ गाथा: भवनपति अधिकार: वैमानिक अधिकार: ~2~ पृष्ठांकः मूलांक: - ००५ ०२५ ०६७ २७४ -आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया दीप- अनुक्रमाः ३०७ गाथा: वाणव्यंतर अधिकार: ईषत्प्राग्भारपृथ्वी व सिद्धाधिकार पृष्ठांक ०१२ ०३९ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['देवेन्द्रस्तव' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मुलं एवं संस्कृतछाया । ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया % % प्रत ॥ अह देविंदधयपइण्णयं ॥९॥ अमरनरवदिए वंदिऊण उसभाइजिणवरिंदे । वीरवरअपच्छिमंते तेलुकगुरू पणमिऊण ॥१॥९२९॥ कोइ पढमपाउसंमि सावओ समयनिच्छयविहिण्णू । बन्नेइ थपमुयारं जिणमाणे (माणो) बद्धमाणम्मि ॥२॥ ४॥ ९३०॥ तस्स थुर्णतस्स जिणं सोइ(सामि)यकडा पिया मुहनिसन्ना । पंजलिउडा अभिमुही सुणइ थपं ४ दवद्धमाणस्स ॥ ३॥९३१ ।। इंदविलयाहिं तिलयरयणंकिए लक्खणकिए सिरसा । पाए अवगयमाणस्सल दिमो वद्धमाणस्स ॥ ४ ॥९३२॥ विणयपणएहि सिढिलमउडेहिं अप(पय)डियजसस्स देवेहिं । पाया पसंतरोसस्स बंदिमो बद्धमाणस्स ॥५॥९३३ ॥ बत्तीसं देविंदा जस्स गुणेहिं उवहम्मिया छायं । तो (नो)। तस्स वियच्छेयं पायच्छायं उबेहामो ॥६॥९३४ ॥ बत्तीसं देविंदत्ति भणियमित्तंमि सा पियं भणइ । अंत-16 सुत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम । अथ देवेन्द्रस्तवप्रकीर्णकम् ॥ ९॥ अमरनरवन्दितान बन्दित्वा ऋषभादिजिनवरेन्द्रान् । अपश्चिमवीरवरान् तान (शेषान्) त्रैलोक्यगुरून् प्रणम्य ॥१३॥ कश्चित् श्रावकः समयनिश्चयविधिनः प्रथमप्रावृषि वर्णवति स्तवमुदारं जातबहुमाने(?) वर्द्धमाने ॥२॥ तस्य | जिनं स्तुवतः समीपे कृतश्रुतिका प्राचालिपुटाऽभिमुखी प्रिया बर्द्धमानस्य सर्व सुखनिषण्णा शृणोति ॥ ३ ॥ इन्द्रवनितामिस्तिलकरत्नाहितान, लक्षणाकितान् । अपगतमानस्य वर्धमानस्य पादान शिरसा वन्दामहे ॥ ४ ॥ विनयप्रणतैः शिथिलमुकुवैः प्रशान्तरोषस्यापति(प्रकटि)वयशसो बर्बमानस्य पादान बन्दामहे ॥५॥ द्वात्रिंशद् देवेन्द्रा गुणैर्यस्य छायायामागताः । ततस्तस्य विगतच्छेदा पादच्छायामाश्यामः । JAMERatindiamanand अत्र मङ्गलं कृत्वा देवेन्द्र-पृच्छा प्रदर्श्यते ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [७]---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रकीर्णकद- शाके ९ दे वेन्दस्तवे | प्रत सूत्रांक ||७|| रभासं ताहे काहेमो कोउहालेणं ॥ ७॥ ९३५ ॥ कयर ते धत्तीसं दविंदा को व कत्थ परिवसह । केवइया कस्स प्रियापत्योः ठिई को भवणपरिग्गही तस्स ? ॥ ८॥९३६॥ केवड्या व विमाणा भवणा नगरा व हुंति केवइया । पुढ-नाप्रभोत्तरे वीण व पाहलं उच्चत्त विमाणवतो वा ॥९॥९३७ ।। का रंति व का लेणा उकोसं मजिसमजहणं । उस्सास्सो निस्सासो ओही विसओ व को केसिं? ॥१०॥९३८ ॥ विणओवयार ओवहम्मियाइ हासवसमुबह-IN तीए । पडिपुच्छिए पियाए भणइ सुअणु! तं निसामेह ॥ ११ ॥ ९३९ ॥ सुअणाणसागराओ सुणिओ पडिपुच्छणाइ जं लद्धं । पुण वागरणावलि नामावलियाइ इंदाणं ॥ १२॥ ९४०॥ सुण वागरणावलि रयणं व पणामियं च वीरेहिं । तारावलिच धवलं हियएण पसन्नचित्तेणं ॥ १३ ॥ ९४१॥ रयणप्पभाइकुडनिकुड-IN वासी सुतणू! तेउलेसागा । वीसं विकासियनयणा भवणवई ते निसामेह (समदिट्ठी सपदेविंदा) ॥१४॥ ॥ ६ ॥ द्वात्रिंशदेवेन्द्रा इति भणितमात्रे सा भणति । प्रियमन्तरभाषां करिष्यामि कौतूहलेन ॥ ७॥ कतरे ते द्वात्रिंशद् देवेन्द्राः? को वा कुत्र परिवसति ? । कियती कस्य स्थितिः १ को भवनपरिग्रहस्तस्य ॥ ८॥ कियन्ति वा विमानानि भवनानि नगराणि वा भवन्ति | कियन्ति ? पृथिव्या वा पाहल्यमुञ्चत्वं विमानवों वा ॥९॥ किरमणाः किलपनाः उत्कृष्टमध्यमजघन्यैः । उच्ढासो निःश्वासोऽवधि-| | विषयो वा का केषाम् ॥१०॥ विनयोपचारमाया वचनाङ्गीकार(हासवश)मुद्वहन्त्या। इह प्रियया प्रतिपृष्ठो भणति सुतनो! त्वं निशमय | ॥ ११॥ श्रुतमानसागरात् श्रुतं प्रतिपृच्छया यहब्धं । पुनाकरणवलवन्नामावलिकादि इन्द्राणाम् ।। १२ ॥ शृणु ब्याकरणबलवद् रनवद् ॥७६ ॥ वीरैर्दत्तं । तारावलीव धवलं हृदयेन प्रसन्नचेतसा ॥ १३ ॥ प्रभादिकुड्यनिष्कुटवासिनः सुवनो! तेजोलेश्याकाः । विंशतिर्विकसित-13 ॐ दीप अनुक्रम [७] AADAR wjasthapana अथ भवनपति-अधिकारः आरभ्यते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१५]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक 2534552 ॥९४२ ॥ भवणवई दो इंदा चमरे वइरोअणे असुराणं (चमरिंदलिंद असुरनिकाय च)। दो नागकुमा-- रिंदा भूपाणंदे य धरणे य ॥१५॥ ९४३ ॥ दो सुयणु! सुवपिणदा वेणूदेवे य वेणुदाली य । दो दीवकुमारिंदा पुणे य तहा बसिढे य ॥ १६ ॥९४४ ॥ दो उदहिकुमारिंदा जलकते जलपमे य नामेणं । अभियगह अमियवाहण दिसाकुमाराण दो इंदा ॥ १७ ॥ ९४५ ॥ दो वाउकुमारिंदा चेलंय पभंजणे य नामेण । दो धणियकुमारिंदा घोसे प तहा महाघोसे ॥ १८॥ ९४६ ।। दो विजुकुमारिंदा हरिकंत हरिस्सहे प नामेणं । अग्गिसिहअग्गिमाणय हुपासणववि दो इंदा ॥ १९ ॥९४७॥ एए विकसिपनपणे । दसदिसि वियसियजसा|8 मए कहिया । भवणवरसुहनिसन्ने सुण भवणपरिग्गहमिमेसि ॥ २० ॥ ९४८ ॥ चमरबहरोभणाणं असुरिंपदार्ण महाणुभागाणं । तेर्सि भवणवराणं चउसद्विमहे सयंसहस्से ॥ २१ ॥ ९४९ ।। नागकुमारिंदाणं भूयाण नयना भवनपतयस्तान् निशमय (सम्यग्दृष्टयः सर्वदेवेन्द्राः) ॥ १४॥ द्वौ भवनपतीन्द्री चमरो वैरोचनोऽसुराणाम् । द्वौ नागकुमा| रेन्द्रौ भूतानन्दच धरणश्च ॥ १५ ॥ द्वौ सुननो! सुवर्णकुमारेन्द्रौ वेणुदेवध वेणुदालिन । तौ द्वीपकुमारेन्द्री पूर्णध तथा वशिष्टश्च ॥ १६ ॥ द्वावुद्धिकुमारेन्द्रौ जलकान्तो जलप्रभश्च नाना । अमितगतिरमितवाहनो दिकुमाराणां द्वाविन्द्रो ॥ १७ ॥ द्वौ वायुकुमारेन्द्री वेलम्बः प्रभानच नाना । द्वौ सनिवकुमारेन्द्रौ घोषश्च तथा महाघोषः ॥ १८॥ दो विद्युत्कुमारेन्द्री हरिकान्तो हरिसच नाना । अग्निशिखाऽपिमानवी हुताशनपती अपि द्वाविन्द्रौ ॥ १९॥ एते विकसितनयने ! वशदिविकसितयशसो मया कथिताः । भवनवरसुखनिषण्णे ! शृणु भवनपरिपहमेषाम् ॥ २० ॥ चमरवैरोचनयोरसुरेन्द्रयोर्महानुभागयोः । तेषां भवनवराणां चतुःपष्टिरधः शतसहस्राणि दीप अनुक्रम [१५]] JAMERatininehasanal ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक ||२२|| दीप अनुक्रम [२२] प्रकीर्णकद शके ९ दे वेदस्तवे ॥ ७७ ॥ Can Eatinima “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र - ९ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [२२]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ... आगमसूत्र [३२] प्रकीर्णकसूत्र [०९] "देवेन्द्रस्तव मूलं एवं संस्कृतछाया दधरणाण दुपहंपि । तेसिं भवणवराणं चुलसीहमहे सयस हस्से | २२ || १५० || दो सुषणु । सुवणिदा वेणूदेवे य वेणुदाली य । तेसिं भवणवराणं बावन्तरिमो सयसहस्सा ॥ २३ ॥ ९५९ ॥ वाकुमारिंदाणं वेलंयपभंजणाण दुपहंपि । तेसिं भवणवराणं छन्नवहमहे सयसहस्सा ॥ २४ ॥ ९५२ ॥ चउसट्ठी असुराणं चुलसीई चेय होइ नागाणं। पावन्तरि सुवण्णाणं वाउकुमाराण छन्नउई ।। २५ ।। ९५३ ।। दीवदिसाउदहीणं विज़ुषु मारिंदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुयलयाणं बावन्तरिमो सयसहस्सा || २६ ।। ९५४ ।। इक्किम्मि य जुपले नियमा बावसरि सपसहस्सा। सुंदरि ! लीलाइ ठिए ठिईविसेसं निसामेहि ॥ २७ ॥ ९५५ ॥ चमरस्स सामरोवम सुंदरि ! उक्कोसिया ठिई भणिया । साहीया बोद्धवा बलिस्स बहरोपणिंदस्स ॥ २८ ॥ ९६६ ॥ जे दाहि गाण इंदा चमरं मुत्तूण सेसया भणिया । पलिओचमं दिवहूं ठिई उक्कोसिया तेसिं ॥ २९ ॥ ९५७ ॥ जे ॥ २१ ॥ नागकुमारेन्द्रयोर्भूतानन्दधरणयोर्द्वयोरपि । तेषां भवनवराणां चतुरशीतिरधः शतसहस्राणि ॥ २२ ॥ द्वौ सुतनो ! सुवर्णेन्द्री वेणुदेवा वेणुदालिश्च । तयोर्भवनवराणां द्वासप्ततिः शतसहस्राणि ॥ २३ ॥ वायुकुमारेन्द्रयोर्वे लम्बप्रभञ्जनयोद्वयोरपि । तेषां भवनवराणां पण्णवत्तिरधः शतसहस्राणि ॥ २४ ॥ चतुःषष्टिरसुराणां चतुरशीतिचैव भवति नागानाम् द्वासप्ततिः सुवर्णानां वायुकु माराणां पण्णवतिः ।। २५ ।। द्वीपविगुदधीनां विद्युत्कुमारेन्द्र स्तनितानीनाम् । पण्णामपि युगलानां द्वासप्ततिः शतसहस्राणि ॥ २६ ॥ एकैकस्मिंश्च युगले नियमाद्वासप्ततिः शवसहस्राणि । सुन्दरि ! लीलया स्थिते ! स्थितिविशेषं निशमय ।। २७ ।। चमरस्य सागरोपमं ॥ ७७ ॥ सुन्दरि ! उत्कृष्टा स्थितिर्भणिता । साधिका बोद्धव्या वलेर्वैरोचनेन्द्रस्य ॥ २८ ॥ ये दक्षिणानामिन्द्राश्रमरं मुक्त्वा शेषा भणिताः । पल्यो Far Plate the Oy ~7~ चमरादि भवनादि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक ||३०|| दीप अनुक्रम [३०] Jan Einma प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [३०]---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] “देवेन्द्रस्तव” मूलं एवं संस्कृतछाया “देवेन्द्रस्तव” - उत्तरेण इंदा थलिं पमुत्तूण सेसया भणिया । पलिओ माई दुण्णि उ देसूणाई ठिई तेसिं ॥ ३० ॥ ९५८ ॥ एसोवि ठिइविसेसो सुंदररूवे । विसिद्धवाणं । भोमिज्जसुरवराणं सुण अणुभागो सुनयराणं ॥ ३१ ॥ ९६९ ॥ जोअणसहस्समेगं ओगाहिनॄण भवणनगराई । रयणप्पभाइ सबै इक्कारस जोअणसहस्से ।। ३२ ।। ९६० ।। अंतो चउरंसा खलु अहियमणोहरसहावरमणिज्जा । बाहिर ओऽविय वहा निम्मलवद्दरामया सवे ||३३||९६१ ।। उतिर फलिहा अभितरओ उ भवणवासीणं । भवणनगरा विरायंति कणग सुसिलिट्ठपागारा ॥ ३४॥९३२॥ वरपडमकण्णियामंडियाहिं हिट्टा सहाबलद्वेहिं । सोहिंति पट्टाणेहिं विविहमणिभत्तिचित्तेहिं ।। ३५ ।। ९३३।। चंदणपट्टिएहि य आसतोस्सत्तमलदामेहिं । दारेहिं पुरवरा ते पडागमालाउरा रम्मा ।। ३६ ।। ९६४ ॥ अट्ठेव जोयणाहं उधिद्धा हुंति ते दुवारवरा । घूमघडियाउलाई कंचणदामोवणद्वाणि ॥ ३७ ॥ ९६५ ॥ जहिं पर्म द्वषद्धं स्थितिरुत्कृष्टा तेषाम् ॥ २९ ॥ ये उत्तरत इन्द्रा बलि प्रमुच्य शेषा भणिताः । पस्योपमे द्वे एव देशोने स्थितिस्तेषाम् ॥ ३० ॥ एषोऽपि स्थितिविशेषः सुन्दररूपे ! विशिष्टरूपाणां । भौमेयसुरवराणां शृण्वनुभागं सुनगराणाम् ॥ ३१ ॥ योजन सहस्रमेकमा भवननगराणि । रत्नप्रभायां सर्वाणि एकादश योजनसहस्राणि ॥ ३२ ॥ अन्तचतुरस्राणि खलु अधिकमनोहरखभावरमणीयानि । बाह्यतोऽपि वृत्तानि निर्मलवश्रमवानि सर्वापि ॥ ३३ ॥ उत्कीर्णान्तरपरिखा अभ्यन्तरतस्तु भवनवासिनाम् । भवननगराणि विराजन्ते सुष्टिकनकप्राकाराः ॥ ३४ ॥ वरपद्मकर्णिकामण्डितामिरघः स्वभावः । शोभन्ते विविधमणिभक्तिचित्रैः प्रतिष्ठानैः ॥ ३५ ॥ चन्दनपद स्थितैरामकोत्सवमाल्यदाममिद्वारैः (शोभन्ते ) तानि पुरवराणि पसाकामाळातुराणि रम्याणि ॥ ३६ ॥ अष्टौ च योजनान्युविद्वानि भवन्ति Far Plate Ony ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [३८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया चमरादि (भवनादि प्रत सूत्रांक प्रकीर्णकद- देवा भवणवई वरतरुणीगीयवाइयरवेणं । निचमुहिया पमुइया गयंपि कालं न याति ॥ ३८॥९६६॥ चमरे शके ९ दे- धरणे तह वेणुदेव पुणे य होइ जलकते । अमियगई वेलंये घोसे हरी अ अग्गिसिहे ॥ ३९ ॥९६७ ॥ कणवेन्दस्तवेगमणिरयणथूभियरम्माई सवेश्याई भवणाई। एएसिं दाहिणओ सेसाणं दाहिणे(उत्तरे)पासे ॥४०॥९६८॥ चउतीसा चोयाला अट्ठतीसं च सयसहस्साई। चत्ता पन्नासा खलु दाहिणओ टुति भवणाई ॥४१॥९६९॥ ॥७८॥ तीसा पत्तालीसा चउतीसं चेव सयसहस्साई । छत्तीसा छायाला उत्तरओ हुंति भवणाई ॥ ४२ ॥ ९७०॥ भवणविमाणवईणं तायत्तीसा य लोगपाला य । सबेसि तिन्नि परिसा समाणचउगुणापरक्खा उ ॥ ४३ ॥ ॥९७१ ।। चउसट्ठी सट्ठी खलु छच सहस्सा तहेव चत्तारि । भवणवइयाणमंतरजोइसियाणं च सामाणे | ||३८|| दीप अनुक्रम [३८] Co+C+ESCAKRCSCANCC तानि द्वारवराणि । धूपपदिकाकुलानि काखनदामोपनद्धानि ।। ३७ ।। यत्र देवा भवनपतयो वरतरुणीगीतवादितरण । नित्यमुखिताः | प्रमुदिता गतमपि कालं न जानन्ति ॥ ३८ ॥ चमरो धरणस्तथा वेणुदेवः पूर्णश्च भवति जलकान्तः । अमितगतिवेलम्बो घोषो हरिधाग्निशिखः ।। ३९ ॥ कनकमणिरत्रस्तूषिकारभ्याणि सवेदिकानि भवनानि । एतेपो दक्षिणतः शेषाणामुत्तरे पाः ॥ ४० ॥ चतुषि-16 शत् चतुभत्वारिंशत् अनिशच शतसहस्राणि । चत्वारिंशत् पञ्चाशत् खलु दक्षिणस्यां भवन्ति भवनानि ॥ ११ ॥ त्रिंशत् चत्वारिंशत हाचतुस्त्रिंशश्चैव शतसहस्राणि । पत्रिंशत् पट्चत्वारिंशत् उत्तरस्यां भवन्ति भवनानि ॥ ४२ ॥ भवनविमानपतीनां त्रायस्त्रिंशाच लोकपा- लाध । सर्वेषां तिमः पर्षदः सामानिक चतुर्गुणा आत्मरक्षाः ।। ४३ ॥ चतुःषष्टिः पतिः खलु पट् च सहस्राणि तवैव चत्वारि । भवन-: ॥७॥ JIMEReatinatantnasana ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [४५]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया -- 940-45 --- प्रत सूत्रांक ||४५|| दू॥४४॥९७२ ॥ पंचग्गमहिसीओ चमरवलीणं हवंति नायचा । सेसयभवणिदाणं सच्चेव य अग्गमहिसीओ ॥४५॥ ९७३ ।। दो चेव जंबुदीवे चत्तारि य माणुसुत्तरे सेले। छवारुणे समुदे अट्ट य अरुणम्मि दीवम्मि, ॥४६॥ ९७४ ॥ जनामए समुद्दे दीवे वा जंमि हुँति आवासा। तन्नामए समुद्दे दीवे वा तेसि उष्पापा ॥४७॥ ॥ ९७२ ।। असुराणं नागाणं उदहि कुमाराण हुंति आवासा । बरुणवरे दीवम्मी तत्थेव य तेसि उपाया ॥४८॥ ९७६ ॥ दीवदिसाअग्गीणं धणियकुमाराण ९ति आवासा। अरुणवरे दीवम्मि य तस्थेव य तेसि उप्पाया ॥ ४९ ॥ ९७७॥ वाउसुवर्षिणदाणं एएसिं माणुसुत्तरे सेले । हरिणो हरिप्पहस्स य विजुप्पभमा-18 लवतेसु ॥ ५० ॥ ९७८ ॥ एएसि देवाणं बलबीरियपरक्कमो अ जो जस्स । ते सुंदरि ! वण्णेहं अहकर्म आणुपुषीए ॥५१॥ ९७९ ॥ जाव य जंबुद्दीवो जाव य चमरस्स चमरचंचा उ । असुरेहि असुरकण्णाहिं तस्स | पतिव्यन्तरज्योतिष्काणां सामानिकाः ।। ४४ ॥ पञ्चापमहिष्यभ्रमरबलिनोः भवन्ति ज्ञातव्याः। शेषभवनेन्द्राणां पट् चैव धापमहिण्यः | ॥ ४५ ॥ द्वावेव जम्बूद्वीपे चत्वारश्च मानुषोत्तरे शैले । षड् वारुणे समुद्रे अष्टौ चारणे द्वीपे ॥ ४६॥ यन्नामके समुद्रे द्वीपे वा | यस्मिन भवन्त्यावासाः । तन्नामके द्वीपे समुद्रे वा तेषामुत्पातपर्वताः ॥ ४७ ॥ असुराणां नागानामुदधिकुमाराणां भवन्त्यावासाः । वरुणवरे द्वीपे तत्रैव च तेषामुत्पाताः ॥ ४८ ॥ द्वीपदिगग्रीनां स्तनितकुमाराणां भवन्त्यावासाः। अरुणवरे द्वीपे तत्रैव च तेषामुत्पातपर्वताः | ॥४९॥ वायुसुपर्णेन्द्राणामेतेषां मानुपोचरे शैले । इरेहरिप्रभस्य च विद्युत्प्रभमाल्यवतोः ॥५०॥ एतेषां देवानां थलवीर्यपराक्रमच यो| यस्य । वं मुन्दरि! वर्णवेऽहं यथाक्रममानुपूर्ध्या ॥५१॥ यावच जम्बूद्वीपो यावर चमरस्य चमरचचा । असुररसुरकन्याभिर्भर्नु तस्य | 4 दीप 55- 2 अनुक्रम 55- 96 [४५] %- % 4 च. स.१४ 4 JAMERuadihamrhatistia ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१२]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया १० प्रकी- केषु ८गणिवि- घायां प्रत सूत्रांक ||५२|| विसओ भरे जे ॥५२॥९८०॥ तं व समहरंग बलिस्स बहरोयणस्स पोदय । असुरेहिं असुरकण्णाहिं भवनपतितस्स विसओ भरे जे ॥५३॥९८२ ॥ धरणोषि नागराया जंबुद्दीषं फहाइ छाइजातंचेष समाहरेग भवनमयाणंदे य योद्धचं ॥५४॥९८२ ।। गुरुलोऽवि वेणुदेवो जंबुद्दी छइज पक्वेणं । तं चेव समहरेग घेणुदालिम्मि बोद्धवं ॥ ५५ ॥९८३ ॥ पुण्णोवि जंबुदीव पाणितलेणं छहज इकणं । तंव समहरेग हा बसि-II डेवि योद्धधं ॥५६॥९८४ ॥ इकाइ जलुम्मीए जंबुदी भरिज जलकतो। तं व समदरेग जलप्पभे होई। योद्धर्ष ॥ ५७ ॥९८५ ॥ अमिषगइस्सवि विसओ जंबुद्दीवं तु पायपाहीए । कपि निरषसेस इयरो पुण तं| समइरेगं ॥ ५८॥९८६ ॥ इकाइ वायुगुंजाइ जंबुहरीवं भरिज ओलंबो। तं व समइरेगं पभजणे होइ योद्धवं 1॥५९॥ ९८७ ।। घोसोऽपि जंबुदीवं सुंदरि! इफेण थणियसरेणं । यहिरीकरिख सब इपरो पुण तं समइरेग18 विषयः ।। ५२ ॥ स एव समतिरेको बलेरोपनख योद्धव्यः । असुरैरमुरकन्याभिर्भर्नु तस्य विषयः ।। ५३ ॥ धरणोऽपि नागराजो जम्बूद्वीपं फणेनाच्छादयेन् । तमेव समतिरेक भूनानन्दे च बोदव्यः ।। ५४ ॥ गरुडोऽपि वेणुदेवो जम्बूद्वीपमाच्छादयेत् पक्षेण । तमेव समतिरेके वेणुदाली योद्धयः ।। ५५ ।। पूर्णोऽपि जम्बूद्वीपं पाणितलेनापहाइवेदेकेन । तमेव समतिरेकं भवति बशिष्टेऽपि योद्धव्यः | ॥५६॥ एकया जलोया जम्बूदीपं भरेजलकान्तः । तमेव ममतिरेकं जलप्रभे भवति योग्यः ॥ ५५ ॥ अमितगतेरपि विषयो जम्मू-16 द्वीप तु पादपाणिना । कम्पयेन्निरवोपमितरः पुनस्तं समतिरेकम् ॥ ५८ ॥ एकथा वातगञ्जया जम्बूद्वीपं भरेवेलम्बः । तमेव समति-121॥ ७९ ॥ रेक प्रभाने भवति बोहव्यः ।। ५९ ॥ घोषोऽपि जम्बूद्वीपं मुन्दरि ! एकेन स्तनित शब्देन । बधिरीकुर्यात्सर्वमितरः पुनस्तं समतिरे दीप अनुक्रम [१२] JIMERetinaamaana I I ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [६१]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६१|| *4%256-6-56 ॥६० ॥९८८ ॥ इक्काइ विजुयाए जंबुद्दीवं हरी पकासिन । तं चेव समहरेगं हरिस्सहे होइ बोद्धर्व ॥ ६ ॥ ॥ ९८५ ।। इकाइ अग्गिजालाइ जंबुद्दीवं इहिज अग्गिसिहो । तं चेव समइरेगं माणवए होइ बोद्धवं ॥ ६२॥ ॥९९० ॥ तिरियं तु असंखिजा दीवसमुदा सएहिं स्वेहिं । अवगाढाउ करिजा सुंदरि। एएसि एगयरो ६॥ १३ ॥ ९९१ ॥ पभू अन्नयरो इंदो जंबुद्दीवं तु वामहत्येण । उत्तं जहा धरिजा अन्नयओ मंदरं चित्तुं ॥१४॥ ॥ ९९२ ॥ जंबुद्दीवं काऊण उत्तयं मंदरं व से दंई । पभू अनयरो इंदो एसो नर्सि बलविसेसो ॥६५॥ ९९३॥ एसा भवणवईणं भवठिई पन्निया समासेणं । सुण वाणमंतराणं भवणवईआणुपुबीए ॥६६॥ ९९४ ॥131 पिसाय भूआ जक्खा प रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा । महोरगा य गंधवा अट्ठविहा चाणमंतरिया ॥ १७॥ ॥९९५ ॥ एए उ समासेणं कहिया भे वाणमंतरा देवा । पत्तेयंपि य बुच्छं सोलस इंदे महिड्डीए ॥३८॥ ९९६ ॥ | कम् ।। ६० ॥ एकया विद्युता जम्यूद्वीपं हरिः प्रकाशयेत् । तमेव समतिरेकं हरिसहे भवति योद्धव्यः ।। ६१ ॥ एकयाऽग्निज्वालया। जम्यूद्वीपं दहेदप्रिशिखः । तमेव समतिरेक माणवके भवति चोद्धव्यः ॥ ६२ ॥ तिर्यक् तु असोयान द्वीपसमुद्रान खकै रूपैः । भव-| गादान कुर्यात् सुन्दरि! एतेषामेकतरः ॥ ६३ ॥ प्रभुरेकतर इन्द्रो जम्बूद्वीपं तु वामहस्तेन । छत्रं यथा धर्नुमन्यतो मन्दरं महीतुम | ॥ ६४ ॥ जम्बूद्वीपं कर्तुत्रं मन्दरं च तस्य दण्डम् । प्रभुरन्यतर इन्द्र एष तेषां बलविशेषः ॥ ६५ ॥ एषा भवनपतीनां भवनस्थितिर्वर्णिता समासेन । शृणु व्यन्तराणां भवनपत्यानुपूर्त्या ।। ६६ ॥ पिशाचा भूता यक्षाच राक्षसाः किन्नराच किंपुरुषाः । महोरगाश्च | | गान्धर्वा अष्टविधा ग्यन्तराः ।। ६७ ॥ एते तु समासेन कथिता भवत्या व्यन्तरा देवाः । प्रत्येकमपि च वक्ष्ये पोडशेन्द्रान् महर्षिकान || 45544 दीप अनुक्रम [६१] JIMEReatinaatmasata अथ वानव्यंतर-अधिकार: आरभ्यते ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [६९]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||६९|| १० प्रकी-1 काल य महाकाल सुरूथ पाडरूव पुन्नमद का अमरबह भाणभद्द भाम य तहा महाभीम ।। ६९ ॥ ९९७ ॥ व्यस्तरणकेषु किन्नरकिंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । अबकायमहाकाए गीयरई चेव गीयजसे ॥७०॥९९८॥ भवनानि गणिवि- समिहिए सामाणे धाइ विधाए विसी य इसिपाले। इस्सर महिस्सरे या हवा सुवच्छे विसाले य ॥ ७१॥16 द्यायां ॥९९९ ॥ हासे हासरई विज सेए अ तहा भवे महासेए । पपए पययावईविय नेयषा आणुपुषीइ ॥७२॥12 18| ॥१०००। उहमहे तिरिपंमि य वसहिं ओविति वंतरा देवा । भवणा पुणण्ह रयणप्पभाह उबरिल्लए कंडे| ॥८ ॥ ॥७३॥ १००१ ॥ इकिकम्मि य जुयले नियमा भवणा बरा असंखिजा। संखिजवित्थडा पुण नवरं एतत्य नाणत्तं ॥ ७४ ।। १००२॥ जंबुद्दीवसमा खलु उकोसेणं भवंति भवणवरा । खुदरा खिससमाविअ विदेहसमया य मज्झिमया ॥ ७५ ॥ १००३ ॥ जहिं देवा वंतरिया वरतरुणीगीयवाइयरवेणं । 'निचसुहिया पमु-18 ॥ ६८ ॥ कालच महाकालः सुरूपः प्रतिरूपः पूर्णभद्रश्च । अमरपतिर्माणिभद्रो भीमश्च सथा महाभीमः ।। ६९ ॥ किन्नरः किंपुरुषः खलु सत्पुरुषः खलु तथा महापुरुषः । अतिकायो महाकायो गीतरतिश्चैव गीतयशाः ॥ ७० ॥ समिहितः सामानो धाता विधाता | कपिः कषिपालः । ईशरो महेश्वरश्च भवति सुवत्सो विशालश्च ।। ७१॥ हासो हासरतिरपि च श्वेतश्च तथा भवति महाश्वेतः । पत-| अथ पतङ्गपतिरपि च ज्ञातव्या आनुपूा ॥ ७२ ।। ऊर्चमधस्तिरश्चि च वसतिमुपयन्ति व्यन्तरा देवाः। भवनानि पुनरेषां रत्नप्रभायां | उपरितने काण्डे ।। ७३ ।। एकैकस्मिंश्च युगले नियमाद्भवनानि वराण्यसायानि । सहयातविस्तूतानि पुनः परमत्र नानात्वम् ।। ७४ ।।। जम्बूद्वीपसमानि खलु उत्कृष्टेन भवन्ति भवनवरागि । क्षुलानि भरतक्षेत्रसमान्यपि च विदेहसमानि च मध्यमानि ।। ७५ ॥ यत्र देवा || दीप 54564646456-5-15% अनुक्रम ACN [६९] IV८० JAHEluatiharanisa ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [७६]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||७६|| दिया गयंपि कालं न याति ॥ ७६ ॥१००४ ॥ काले सुरूव पुण्णे भीमे तह किन्नरे य सप्पुरिसे । अइकाए गीयरई अद्वैव य हुंति दाहिणओ॥७७॥१००५ ॥ मणिकणगरयणथूभिअजंबूणयवेइयाई भवणाई । एएसिं दाहिणओ सेसाणं उत्तरे पासे ॥ ७८॥ १००६॥ दस वाससहस्साई ठिई जहन्ना उ वंतरसुराणं । पलिओविमं तु इकं ठिई उ उकोसिया तेर्सि ॥ ७९ ॥ १००७॥ एसा बंतरियाणं भवणठिई वनिया समासेणं। सुण | जोइसालयाणं आवासविहिं सुरवराणं ॥८०॥ १००८ ॥ चंदा सूरा तारागणा य नक्खत्त गहगण समत्ता ।। |पंचविहा जोइसिया ठिई वियारी य ते गणिया ।। ८१॥१००९॥ अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिया फालियामया रम्मा । जोइसियाण विमाणा तिरियंलोए असंखिज्जा ।। ८२ ॥१०१०॥ धरणियलाउ समाओ सत्तहिं नज-* एहिं जोयणसएहिं । हिडिल्लो होइ तलो मूरो पुण अट्ठहिं सएहिं ।। ८३ ॥१०११ ॥ अहसए आसीए चंदो। व्यन्तरा वरतरुणीगीतवावित्ररवेण । नित्यमुखिताः प्रमुदिता गतमपि कालं न जानन्ति ।। ७६ ॥ कालः सुरूपः पूर्णो भीमस्तथा किन्न-1 रश्न सत्पुरुषः । अतिकायो गीतरतिः अष्टैच च भवन्ति दक्षिणस्याम् ।।७७।। मणिकनकरनस्तूपिकानि जाम्यूनदवेदिकानि भवनानि । एतेषां. दक्षिणतः शेषाणामुत्तरे पार्थे । ७८ ॥ दश वर्षसहस्राणि जघन्या स्थितिस्तु व्यन्तरसुराणाम् । पल्योपमं त्वेकं स्थितिस्तूत्कृष्टैषाम् ।।७९॥ एषा ग्यन्तराणा भवनखितिर्वर्णिता समासेन | शृणु ज्योतिष्काणामावासविधि मुखराणाम् ।। ८०॥ चन्द्राः सूर्यास्तारकागणध नक्षत्राणि प्रहगणः समस्ताः । पञ्चविधा ज्योतिषकाः स्थितिमन्तो विचारिणश्च ते गणिताः ।। ८१॥ अर्बकपित्थसंस्थानसंस्थितानि स्फटिक-| मयानि रम्याणि । ज्योतिष्काणां विमानानि तिर्यगलोकेऽसपातानि ॥ ८२ ।। समाद् धरणितलात्सप्तभिर्नवतेयोजनशतैः । अधस्तन | दीप अनुक्रम [७६] JAHEArihanmins अथ ज्योतिष्क-अधिकारः आरभ्यते ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [८४]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया केपु ८ गणिविद्यायां प्रत सूत्रांक ||८४|| १५२ १९ । । सुत्सरसय बाहल जाहसस्स भव ॥८४११०१२।। एगहिभाप काऊण जाजणं ज्योतिष्कातस्स भागछप्पण्णं । चंदपरिमंडलं खलु अड्यालाहोर सूरस्स ॥८॥१०१३॥ जहिं देवा जोइसिया वासाः वरतरुणीगीयवाइयरवेणं । निचसुहिया पमुइयागयपि कालं न याति ॥८६॥ १०१४॥ सप्पन्न खलु भागा81 विच्छिन्नं चंदमंडलं होइ । अडषीसं च कलाओ पाहलं तस्स बोध ॥८७॥ १.१५॥ अक्षयालीसं भागा| |विच्छिन्न सूरमंडलं होई । चउवीसं च कलाओ बाहलं तस्स बोद्ध । ८८॥१०१५ ॥ अद्धजोगणिया उ121 गहा तस्सद्धं घेच होइ नक्खता। नक्खत्तद्धे तारा तस्सद्धं चेय वाहलं ।। ८९॥१०१७॥ जोअणमद्धं तत्तो गाऊ पंचधणुसया टुंति । गहनक्खत्तगणाणं तारविमाणाण विक्खंभो ॥१०॥१०१८ ॥ जो जस्सा विक्वंभो तस्सद्धं चेव होह बाहल्लं तं तिउर्ण सविसेसं परिरओहोद बोद्धयो ॥ ११ ॥१०१९ ।। सोलस12 तलं भवति सूर्यः पुनरष्टभिः शतैः ॥ ८३ ॥ अष्टशत्यामशीत्यधिकायां चन्द्रस्तथैव भवत्युपरितले । एक दशोत्तरशतं वाहल्यं ज्योतिषो18 भवति ॥ ८४ ॥ एकपष्टिभागं कृत्वा योजनं तस्य पट्पश्चाशद्भागाः । चन्द्रपरिमण्डलं खलु अष्टचत्वारिंशद्भवंति सूर्यस्य ।। ८५ ।। यत्र देवा ज्योतिष्का परतरुणीगीतवादित्रवेण । नित्यसुखिताः प्रमुदिताः गतमपि कालं न जानन्ति ॥ ८६ ॥ षट्पञ्चाशत् खलु भागा| विस्तीर्ण चन्द्रमण्डलं भवति । अष्टाविंशतिध भागा पाहल्यं तस्य बोद्धव्यम् ॥ ८७॥ अष्टचत्वारिंशदागा विस्तीर्ण सूर्यमण्डलं भवति । चतुर्विंशतिश्च भागा बाइल्यं तस्य योद्धव्यम् ।। ८८ ॥ अर्द्धयोजनास्तु महास्तस्यार्द्धमेव भवति नक्षत्राणाम् । नक्षत्रार्द्ध तारकास्तदमेव ॥८॥ बाहल्यम् ।। ८९ ।। योजनमर्द्ध ततो गब्यूतं पश्ा धनुःशतानि च भवन्ति । प्रहनक्षत्रगणानां ताराबिमानानां विष्कम्भः ।। ९० ॥ यो दीप अनुक्रम [८४] JAMERananathaianal wjasthapan ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [९२]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत चेव सहस्सा अट्ट य चउरो य दुन्नि य सहस्सा । जोइसिआण विमाणा वहंति देवाभिउगाओ ॥९॥१०२०॥ पुरओ वहंति सीहा दाहिणओ कुंजरा महाकाया । पञ्चस्थिमेण वसहा तुरगा पुण उत्तरे पासे ॥१३॥१०२१॥ चंदेहि उ सिग्घयरा सूरा सूरेहिं तह गहा सिग्घा । नक्खत्ता उ गहेहि य नक्वत्तेहिं तु ताराओ॥९॥ ॥ १०२२ ॥ सबप्पगई चंदा तारा पुण हुंति सबसिग्घगई। एसो गईविसेसो जोइसियाणं तु देवाणं ॥९॥ ॥ १०२३ ॥ अप्पिडियाओ तारा नक्वत्ता खलु तओ महिड्डियए । नक्वत्तेहिं तु गहा गहेहिं सूरा तओ चंदा ॥ ९६ ॥१०२४ ॥ सबम्भितरऽभीई मूलो पुण सबबाहिरो भमद । सबोवरिं च साई भरणी पुण सब-I हिटिमया ॥९७ ॥ १०२५ ॥ साहा गहनक्खत्ता मज्झेगा हुँति चंदसूराणं । हिट्ठा समं च उपि ताराओ सूत्रांक ||९२|| दीप VI अनुक्रम [९२] यस्य विष्कम्भस्तस्य तदर्द्धमेव भवति बाहल्यम् । सविशेषविगुणः परिरयो भवति योद्धव्यः ॥ ९१ ॥ पोडशैव सहस्राणि अष्टौ च चत्वारि च हे च सहस्रे । ज्योतिषकाणां विमानानि आमियोगिका देवा वहन्ति ॥ ९२ ॥ पुरतो वहन्ति सिंहा दक्षिणतः कुक्षारा महाकायाः । पश्चिमायां पृषभास्तुरगाः पुनरुत्तरे पाः ॥ ९३ ॥ चन्द्रेभ्यस्तु शीघ्रतराः सूर्याः सूर्येभ्यस्तथा प्रहाः शीयाः । नक्षत्राणि तु| महेभ्यश्च नक्षत्रेभ्यस्तु तारकाः ।। ९४ ॥ सर्वाल्पगतयश्चन्द्रास्तारकाः पुनर्भवन्ति सर्वशीघ्रगतयः । एष गतिविशेषो ज्योतिकाणां तु देवानाम् ।। ९५ ॥ अल्पर्विकास्तारका नक्षत्राणि खलु सतो महर्द्धिकतराणि । नक्षत्रेभ्यस्तु पहा महेभ्वः सूर्यास्तेभ्यः चन्द्राः ॥ १६ ॥ सर्वाभ्यन्तरेऽभिजिग्मूलः पुनः सर्वबाह्ये भ्राम्यति । सर्वोपरिष्टान स्वातिर्भरणिः पुनः सर्वाधस्तात् ॥ ९७ ॥ शाखा प्रहनक्षत्राणि चन्द्रसूर्ययोः । I ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [९८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||९८|| प्रकीर्णकदाचंसूराणं ॥ ९८ ॥ १०२६ ॥ पंचेव धणुसयाई जहन्नयं अंतरं तु ताराणं । दो चेव गाउआई निवाघाएणज्योतिकाः |उकोर्स ॥ ९९ ॥१०२७ ॥ दोनि सए छावढे जहन्नयं अंतरं तु ताराणं । बारस चेव सहस्सा दो पायाला थ| वेन्दस्तवे उकोसा ॥१०॥ १०२८ ॥ एयस्स चंदजोगो सत्तहि खंडिओ अहोरत्तो। ते हंति नव मुहुत्ता सत्तावीसं | कलाओ अ ॥१०१॥१०२९ ॥ सयभिसया भरणीओ अहा अस्सेस साइ जिट्टा य। एए छन्नक्खत्ता पन्नर-17 समुहत्तसंजोगा ॥१०२॥१०३०॥ तिन्नेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य। एए उन्नक्खत्ता पणयाल-IA मुहत्तसंजोगा ॥१०३ ॥ १०३१ ॥ अवसेसा नक्खत्ता पनरसया हुँति तीसइमुहुत्ता। चंदमि एस जोगो नक्षत्साणं मुणेययो ॥१०४ ॥१०३२ ॥ अभिई छच मुहत्ते चत्तारि अ केवले अहोरत्ते । सूरेण समं वह | इत्तो सेसाण बुच्छामि ॥ १०५ ॥१०३३ ।। सपभिसया भरणीओ अदा अस्सेस साइ जिट्ठा य । वचंति काधिन्मध्ये । अधः सममुपरि च तारकाचन्द्रसूर्ययोः ॥ १८ ॥ पञ्चैव धनुःशतानि जधन्यमन्तरं तु तारकाणाम् । । एवं गन्यूते निा-| घातेनोत्कृष्टम् ।। ९९ ॥ द्वे शते षट्पावधिके जघन्यमन्तरं तु तारकयोः । द्वादश चैव सहस्राणि द्वे शते द्विचत्वारिंशचोत्कृष्टतः ।। १००॥18 एतैश्चन्द्रयोगः सप्तपष्टिखण्डितोऽहोरात्रः । ते भवन्ति नव मुहूर्ताः सप्तविंशतिश्च भागाः (अभिजिति) ॥ १०१ ॥ शतभिषा भरणी आर्द्राऽश्लेषा स्वातिज्येष्ठा च । एतानि पग्नक्षत्राणि पादशमुहूर्तसंयोगानि ॥ १०२ ॥ त्रीण्येवोत्तराणि पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च । एतानि है। |पण्नक्षत्राणि पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तसंयोगानि ॥ १०३ ॥ अवशेषाणि नक्षत्राणि पत्रादश त्रिंशन्मुहूर्तसंयोगानि । चन्द्रे एष योगो नक्षत्राणां11८२॥ ज्ञातव्यः ॥ १०४ ।। अभिजित् षट् च मुर्त्तान् चतुरच केवलानहोरात्रान् । सूर्येण समं व्रजति अतः शेषाणां वक्ष्ये ॥ १०५ ।। शतभि दीप अनुक्रम [९८] LAIMEautiniyaindian ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१०६]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया 4%25 प्रत सूत्रांक ||१०६|| छहोरत्ते इकवीसं मुहत्ते य ॥ १०६ ॥१०३४ ॥ तिन्नेव उत्तराई पुणधसू रोहिणी विसाहा य । वचंति मुहुत्ते | अतिन्नि चेव वीसबाहोरते ॥ १०७॥ १०३५ ।। अवसेसा नक्खत्ता पण्णरसवि सूरसहगया जंति । पारस चेव | मुहुत्ते तेरस य समे अहोरते ॥१०८॥१०३६ ॥ दो चंदा दो सूरा नक्खत्ता खलु हवंति छप्पन्ना । गवत्तरं गहसयं जंबुद्दीवे वियारीणं ॥१०९॥१०३७॥ इकं च सपसहस्सं तित्तीसं खलु भवे सहस्साई । नव |य सपा पण्णासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ११ ॥१०३८॥ चत्तारि चेव चंदा चत्तारि य सूरिया लवणजले । बारं नक्खत्तसपं गहाण तिन्नेव बावन्ना ॥ १११ ॥ १०३९ ॥ दो चेव सपसहस्सा सहि खलु भवे सहस्साई । नव य सया लवणजले तारागणकोडिकोडीणं ॥ ११२॥१०४०॥ चउबीसं ससिरविणो नक्स|त्तसया य तिषिण छत्तीसा । इषं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे ॥ ११३ ॥१०४१॥ अद्वैव सयसहस्सा पग भरणी आर्द्राऽश्लेषा स्वातिर्येष्ठा । ब्रजन्ति षडहोरात्रान् एकविंशतिं मुहूर्तान् ॥ १०६ ॥ त्रीण्येवोत्तराणि पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च । प्रजन्ति त्रीनेव मुहूर्तान विंशतिं पाहोरात्रान् ॥ १०७ ।। अवशेषाणि नक्षत्राणि पश्नावशाऽपि सूर्यसहगतानि यान्ति । द्वादशैव मुहूर्तान प्रयोदश च समानहोरात्रान् ।। १०८॥ द्वौ चन्द्रौ द्वौ सूर्यौ नक्षत्राणि खलु भवन्ति पट्पञ्चाशत् । षट्सप्तत्यधिकं महशतं जम्बूद्वीपे विचारि ।।१०९।। एकं च शतसहस्रं प्रयस्त्रिंशत्खलु भवन्ति सहस्राणि । नव च शतानि पश्चाशच तारागणकोटीकोटयः ।। ११०।। चत्वार एवं चन्द्राश्चत्वारश्च सूर्या लवणजले । द्वादशं नक्षत्रशतं ग्रहाणां द्वापञ्चाशदधिकानि त्रीणि शतानि ।। १११॥ हे एवं शतसहस्र सप्तपटिन खलु भवन्ति सहस्राणि । नव च शतानि लबणजले तारकगणकोटीकोटीनाम् ॥ ११२ ॥ चतुर्विंशतिः शशिनो खयश्च नक्ष दीप अनुक्रम [१०६] JAMERananathaiana ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [११४]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||११४|| प्रकीर्णकद-तिपिण सहस्सा य ससय सया छ । पापसिंहे दीये तारागणकोडिकोडीणं ॥ ११४ ॥ १०४२ ॥ पायालीसं ज्योतिप्काः शके ९ देशादा मायालीसंबविणयरा दित्ता । कालोवहिमि एए चरंति संबद्धलेसाया ॥ ११५ ॥ १०४३ ॥ नक्वत्स-II वेन्दस्तवे | मिगसहस्सं एगमेव छावत्सरं च सयमन्नं । छ सया एनउआ महग्गहाण तिन्नि य सहस्सा ॥११६|१०४४॥ दा अट्ठाथीसं कालोदहिम्मि पारस य सहस्साई । नव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं ॥११७॥१०४५।। ॥८३॥ गोपालं चंदसर्य चोपालं पेष सूरियाण,सयं । पुक्खवरम्मि एए चरंति संबद्धलेसाया ॥११८॥ १०४६ ॥ चत्तारिं च सहस्सा वसीसं चेव हुँति नक्खत्ता । छच सपा पावत्तर महग्गहा बारस सहस्सा ॥११९।।१०४७॥ एनसह सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई । चत्सारी य सपाई तारागणकोडिकोडीणं ॥ १२० ॥ १०४८॥॥ दीप अनुक्रम [११४] प्रशतानि च त्रीणि पशिानि । एकं च प्रहसहस्रं षट्पनाशं धातकीखण्हे ॥ ११३ ॥ अष्ट्रैव शतसहस्राणि त्रीणि सहस्राणि सप्त च ४ शतानि । धातकीखण्डे तारागणकोटीकोटीनाम् ॥ ११४ ॥ द्विचत्वारिंशचन्द्राः द्विचत्वारिंश दिनकरा दीप्ताः । कालोधाते चरन्ति संबद्धलेश्याकाः ॥ ११५.॥ नक्षत्राणामेकं सहस्रं षट्समतं शतमेकमन्यत् । षट् च शतानि पण्णवतानि महापहाणा श्रीणि च सह-| माणि ।।११६।। अष्टाविंशतिर्लक्षाः कालोदधौ द्वादश च सहस्राणि । नव च शतानि पदाशच तारागणकोटीकोटीनाम् ॥११७॥ चतुश्च-|| त्वारिंशं चन्द्रशतं चतुश्चत्वारिशमेव सूर्याणां शतम् । पुष्करघरे एते चरन्ति संबद्धलेश्याकाः ॥१९८॥ चत्वारि च सहस्राणि द्वात्रि-1 ॥८॥ शान्येष भवन्ति नक्षत्राणि । षट् च शतानि द्वासापतानि महामहा द्वादश सहस्राणि ॥ ११९ ॥ पण्णवतिः शतसहस्राणि चतुश्चत्वारि-1 JAMEBusiniyaindianav ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१२१]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१२१|| बावत्तरिं च चंदा पावसरिमेव विणपरा दित्ता । पुक्खरचरदीवढे चरंति एए पगासिंता ॥ १२१ ।। १०४९ ॥ तिणि सपा छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु। नक्वत्ताणं तु भवे सोलाणि दुवे सहस्साणि ॥ १२२ ॥ १०५० ॥ अडयालीसं लक्खा धावीसं खलु भचे सहस्साई। दो अ सय पुक्वरद्धे तारागणकोडिकोडीणं| ४॥१२३ ॥ १०५१ ॥ पत्तीसं चंदसर्य बत्तीसं चेव सूरियाण सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिता ८॥१२४॥१०५२ ॥ इकारस य सहस्सा छप्पिय सोला महग्गहसया उ। छच्च सया छन्नउआ नक्वत्ता तिपिण || सहस्सा ॥ १२५ ॥ १०५३ ॥ अट्ठासीह चत्ताई सयसहस्साई मणुयलोगम्मि । सस य सयामणूणा तारागणकोडिकोडीणं ॥ १२६ ॥ १०५४ ॥ एसो तारापिंडो सबसमासेण मणुयलोगम्मि । पहिया पुण ताराओ18 जिणेहि भणिया असंखिजा ॥ १२७ ॥ १०५५ ॥ एवइयं तारग्गं जं भणियं मणुयलोग(मन)म्मि । चार शच भवन्ति शतसहस्राणि । चत्वारि प शतानि तारागणकोटीकोटीनाम् ॥ १२० ॥ द्वासप्ततिश्च पन्द्रा द्वासप्ततिरेव दिनकरा दीप्ताः । पुष्करवरद्वीपाढे चरन्त्येते प्रकाशयन्तः ।। १२१ ॥ त्रीणि शतानि घर्विशानि पटू च सहस्राणि तु महापहाणाम् । नक्षत्राणां तु भवतः षोडशे द्वे सहने ।। १२२ ।। अष्टचत्वारिंशहक्षा द्वाविंशतिश्च खलु मवन्ति सहस्राणि । द्वे च शते पुष्कराढ़े वारकगणकोटीकोटीनाम् ॥ १२३ ।। द्वात्रिंशं चन्द्रशतं द्वात्रिंशमेव सूर्याणां शतम् । सकलं मनुष्यलोकं चरत्येतत् प्रकाशयन् ।। १२४ ॥ एकादश च सहस्राणि पोतशाधिकानि षट्शतानि महामहाः । षत् शतानि पण्णवतानि नक्षत्राणि श्रीणि च सहस्राणि ।। १२५ ।। चत्वारिंशत्सहस्राधिकानि | अष्टाशीतिः शतसहस्त्राणि । मनुजलोके सप्त च शतानि अन्यूनानि तारागणकोटीकोटीनाम् ।। १२६ ॥ एष तारापिण्डः सर्वसमासेन दीप अनुक्रम [१२१] JAMERananathaians RAPRIMLISFanslatiwON ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१२८]--------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया नरलोके ज्योतिकार प्रत सूत्रांक प्रकीर्णकद- कलंबुपापुष्फसंठियं जोइसं घरह ॥१२८ ॥ १०५६ ॥ रविससिगह नक्खत्ता एवहआ आहिया मणुपलोए | शके ९ ४ जेसि मामागोयं न पागया पन्नवेइंति ॥ १२९ ।। १०५७ ॥ छावढि पिडयाई चंदाइयाण मणुयलोगम्मि। दो वेन्दस्तवे चंदा दो सूरा य हुंति इकिकए पिहये ॥१३०॥ १०५८ ॥ छावढि पिडयाई नक्खसाणं तु मणुपलोगम्मि छप्पन्नं नक्खता य हुंति इविकए पिडए ॥ १३१ ॥ १०५९॥ छावट्ठी पिडयाणं महग्गहाणं तु मणुपलो॥८४॥ गम्मि । छावसरं गहसपं च होइ इकिकए पिडए ॥ १३२ ॥ १०६० ॥ चत्तारि य पंतीओ चंदाइयाण मणुपहै लोगम्मि । छावढि छावढि होइ इक्विकया पंती ॥१३३ ॥ १०६१ ॥ छप्पन्नं पंतीणं नक्खत्ताणं तु मणुयलो गम्मि । छावढि छावढिच होड इकिकया पंती ॥१३४ ॥ १०६२॥ छावत्सरं गहाणं पंतिसयं होइ मणुय ||१२८|| + दीप 4 अनुक्रम [१२८] मनुजलोके । पहिस्तानलारका जिनर्भणिता असङ्ख्येयाः ॥ १२७ ।। एतावत्तारापं यद्भणितं मनुजलोकमध्ये । कदम्यकपुष्पसंस्थितं | ज्योतिधार परति ।। १२८ ॥ रविशशिमहनक्षत्राण्येतावन्त्याख्यातानि मनुजलोके । येषां नामगोत्रं न प्राकृताः प्रज्ञापयन्ति ।। १२९ ।।। तापट्षष्टिः पिटकानि चन्द्रादित्ययोर्मनुजलोके । द्वौ चन्द्रो द्वौ सूर्यौ च भवन्त्यकैकस्मिन् पिटके ।। १३०॥ षट्षष्टिः पिटकानि नक्षत्राणां तु मनुजलोके । पपनाशनक्षत्राणि च भवन्त्येकैकस्मिन् पिटके ।। १३१ ॥ पट्षष्टिः पिटकानि महामहाणां तु मनुजलोके । षट्सप्तत्यप्रधिकं पहशतं च भवत्येकैकस्मिन् पिटके ॥१३॥ चतस्रा पतपश्चन्द्रादित्यानां मनुजलोके । षट्षष्टिः पट्पष्टिर्भवन्त्येकैकस्यां पती ॥१३॥1॥ ८४॥ षट्पञ्चाशत् पतयो नक्षत्राणां तु मनुजलोके । पट्षष्टिः २ भवन्त्येकैकस्यां पजौ ॥ १३४ ॥ पट्सप्ततं प्रहाणां पतिशतं भवति मनुज JimEluridunimmitiamil ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१३५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया 43 * * प्रत सूत्रांक ||१३५|| लोगम्मि । छावहि छावहिं च होइ इकिकया पंती ॥ १३५ ॥१०६३ ॥ ते मेरुमाणुसुत्सर पयाहिणावत्तम-12 डला सधे । अणवट्ठिएहिंजोएहिं चंदा सूरा गहगणा य ॥ १३६ ॥ १०६४ ॥ नक्खत्ततारयाणं अवडिया मंडला मुणेयघा । तेवि य पयाहिणावत्तमेव मेहं अणुचरंति ॥ १३७ ॥ १०६५ ॥ रयणियरदिणयराण उहमहे एव संकमो नत्थि । मंडलसंकमणं पुण अभितरवाहिरं तिरियं ॥ १३८॥१०६६ ॥ रयणियरविणपराणं नक्खत्ताणं च महग्गहाणं च । चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं ॥ १३९ ॥१०६७ ॥ तेसिं पवि-IN संताणं तापक्खित्ते उ वहुए नियमा । तेणेव कमेण पुणो परिहायइ निक्खमिन्ताणं ॥ १४०॥ १०६८॥ तेर्सि कलंबुपापुष्फसंठिया हुंति तावक्खित्तमुहा । अंतो असंकुला बाहिं च वित्थडा चंदसूराणं ॥१४१॥१०६९॥ केणं वहद चंदो? परिहाणी केण होई चंदस्स? । कालो वा जुण्हा वा केणऽणुभावेण चंदस्स ? ॥१४२ ॥1 लोके । पट्षष्टिः २ भवन्त्येकैकस्यां पतौ ।। १३५ ॥ ते मेरुमानुपोत्तरयोः प्रदक्षिणावर्तमण्डलाः सः । अनवस्थितैयोगैश्चन्द्राः सूर्या प्रहग|णाक्ष ।। १३६ ।। नक्षत्रतारकाणामवस्थितानि मण्डलानि ज्ञातव्यानि । तेऽपि च प्रदक्षिणावर्तमेव मेरुमनुपरन्ति ।। १३७ ।। रजनीकर-| | दिनकराणामुमधव सक्रमो नास्ति । मण्डलसक्रमणं पुनरभ्यन्तरबाह्येषु तिरश्चि ।। १३८ ॥ रजनीकरदिनकराणां नक्षत्राणां महा|प्रहाणां च । चारविशेषेण भवति सुखदुःखविधिर्मनुष्याणाम् ॥ १३९ ॥ तेषु प्रविशत्सु तापक्षेत्रं तु वर्द्धते नियमात् । तेनैव क्रमेण पुनः | | परिहीयते निष्कामत्सु ॥ १४० ॥ तेषां कदम्बकपुष्पसंस्थितानि भवन्ति तापक्षेत्रमुखानि । अन्तश्च सङ्कटानि बहिन्ध विस्तृतानि चन्द्रसूर्याणाम् ॥१४१॥ केन चन्द्रो वर्द्धते ? परिहाणिः केन भवति चन्द्रस्य ? । कालिमा वा ज्योत्स्ना वा केनानुभावेन चन्द्रस्य । ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१३५] k% च.स.१५ % INERaininamaina ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक || १४३ || दीप अनुक्रम [१४३] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... प्रकीर्ण शके ९ दे-४ वेन्दस्तवे ॥ ८५ ॥ “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र - ९ ( मूलं + संस्कृतछाया) - Enimations मूलं [१४३]-- ...आगमसूत्र [३२] प्रकीर्णकसूत्र [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥ १०७० ॥ किन्हें राहुविमाणं निचं चंद्रेण होह अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हिट्ठा बंदस्स तं चरह ॥१४३॥ मैं ज्योतिष्का॥१०७१ ॥ छावहिं छावहिं दिवसे दिवसे उ सुकपक्खस्स । जं परिवगृह चंदो खवेह तं चैव कालेणं ॥ १४४॥ १०७२|| धिकारः पन्नरसह भागेण य चंदं पन्नरसमेव चंकमइ । पनरसहभागेण य पुणोवि तं चैव पक्षमह ॥ १४५ ॥ १०७३ | एवं बहु चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जुण्हा वा तेण य (ऽणु) भावेण चंदस्स ॥ १४६ ॥ १०७४॥ अंतो मणुस्सखे ते हवंति चारोवगा य उबवण्णा पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य || १४७|| १०७५।। तेण परं जे सेसा चंदाइच गहतारनक्खत्ता । नत्थि गई नवि चारो अवट्टिया ते मुणेयवा ॥ १४८ ॥ १०७६ ।। दो चंदा इह दीवे चत्तारि य सागरे लवणतोए । धायइसंडे दीवे वारस चंद्रा व सूरा य ॥ १४९ ॥ १०७७ ॥ एगे जंबुद्दीवे दुगुणा लवणे घरगुणा हुंति । कालोयए तिगुणिया ससिसूरा घायईसंडे ॥ १५० ॥ १०७८ ॥ कृष्णणं राहुबिमानं नित्यं चन्द्रेण भवत्यविरहितम् । चतुरङ्गान्यप्राप्तमधस्ताचन्द्रस्य तञ्चरति ॥ १४३ ॥ षट्षष्टिं पट्पष्टिं ( भागं ) दिवसे दिवसे तु पक्षस्य । यत्परिवर्द्धयति चन्द्रं क्षपयति तावन्तमेव कृष्णस्य || १४४ ॥ पञ्चदशभागेन च चन्द्रस्य पञ्चदशभागमेवाक्रामति पञ्चदशभागेन च पुनरपि तत एव प्रक्राम्यति ॥ १४५॥ एवं वर्द्धते चन्द्रः परिहाथिरेव भवति चन्द्रस्य । कालिमा वा ज्योत्स्ना वा तेन च भावेन चन्द्रस्य ।। १४६ ।। अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे भवन्ति चारोपगाओ (चारो) पपन्नाः । पंचविधा ज्योतिषिकाः, चंद्राः सूर्या महगणाश्च ॥ १४७॥ ततः परं ये शेषाचन्द्रादित्या महास्सारका नक्षत्राणि । नास्ति गतिर्नैव चारः अवस्थितास्ते ज्ञातव्याः || १४८ ॥ द्वौ चन्द्राविह द्वीपे चत्वारश्च सागरे लवणतोये । धातकीखण्डे द्वीपे द्वादश चन्द्राश्च सूर्याश्च ॥ १४९ ॥ एको जम्बूद्वीपे द्विगुणा लवणे चतुर्गुणा भवन्ति FP&P Use Oy ~ 23~ ।। ८५ ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१५१]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१५१|| धापासंडप्पभिई उदिहा तिगुणिया भवे चंदा । आइल्लचंदसहिया अणंतराणतरे खित्ते ॥ १५१ ॥ १०७९ ॥ रिक्खग्गहतारग्गा दीवसमुदाण इच्छसे नाउं । तस्स ससीहि उ गुणियं रिक्खग्गहतारयग्गं तु ॥ १५२ ।। 5॥१०८० ॥ बहिया उ माणुसनगरस चंदसूराणऽवट्ठिया जोगा। चंदा अभीइजुत्ता सूरा पुण हुंति पुस्सेहि ॥ १५३ ॥१०८१॥ चंदाओ सूरस्स य सूरा ससिणो य अंतरं होई । पण्णाससहस्साई जोषणाणं अणूणाई ॥ १५४ ।। १०८२ ।। सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होई । बहिया उ माणुसनगस्स जोअ-I णाणं सयसहस्सं ॥ १५५॥ १०८३ ॥ सूरतरिया चंदा चंदंतरिया उ दिणपरा दित्ता। चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य ॥१५६ ॥१०८४ ॥ अट्ठासीयं च गहा अट्ठावीसं च हुंति नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण वुच्छामि ।। १५७ ॥ १०८५ ।। छावढि सहस्साई नव चेव सयाई पंचसयराई । एगससीपरिवारो कालोदे त्रिगुणिताः शशिसूर्या धातकीखण्डे ॥ १५० ॥ धातकीखण्डात् प्रभृति उद्दिष्टास्निगुणिता भवेयुचन्द्राः । आदिमचन्द्रसहिता अन-| न्तरानन्तरे क्षेत्रे ॥ १५१ ॥ पक्षप्रहतारकामाणि द्वीपसमुद्रयोरिच्छसि ज्ञातुं । तस्य शशिमिर्गुणितं क्षमहतारकामं तु ॥ १५२ ॥ बहिः पुनर्मानुषोत्तरनगात् चन्द्रसूर्ययोरवस्थिता योगाः । चन्द्रा अभिजिता युक्ताः सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्यैः ।। १५३ ॥ चन्द्रात् सूर्यस्य | सूर्यात् शशिनश्चान्तरं भवंति । पंचाशत् सहस्राणि योजनानामनूनानि ॥ १५४ ॥ सूर्यस्ख सूर्यस्य च शशिनः शशिनश्चान्तरं भवति । बहिसात् मानुपनगात् योजनानां शतसहस्रं ॥ १५५ ॥ सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः चन्द्रान्तरिताश्च दिनकरा दीप्ताः । चित्रान्तरलेश्याकाः शुभलश्या मन्दलेश्याच ॥ १५६ ॥ अष्टाशीविश्व महाः अष्टाविंशतिश्च भवन्ति नक्षत्राणि । एकशशिपरीवारः इतस्तारकाणां पश्ये ॥१५॥ दीप ORGADC403 अनुक्रम [१५१] JAMERananathaiana ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१५८]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥८६॥ प्रत सूत्रांक ||१५८|| प्रकीर्णकद तारागणकोडिकोडीणं ॥ १५८ ॥ १०८६ ॥ वाससहस्सं पलिओवमं च सूराण सा ठिई भणिया। पलिओवम है ज्योतिष्कशके ९देवचंदाणं वाससपसहस्समन्महि ॥ १५९ ॥१०८७॥ पलिओवर्म गहाणं नक्खताणं च जाण पलियद्धं स्थितिः वेन्दस्तवे पलियचउत्थो भाओ ताराणवि सा ठिई भणिया ॥ १६०॥ १०८८॥ पलिओचमट्ठभागो ठिई जहण्णा उहाकल्पाश्च जोइसगणस्स । पलिओवममुकोस वाससयसहस्समभहियं ॥ ११ ॥ १०८९॥ भवणवइवाणवंतरजोइस-1 वासी लिमिए कहिया । कप्पपईवि य बुच्छ वारस इंदे महिहीए ॥ १२ ॥ १०९० ॥ पढमो सोहम्मवई | ईसाणपई भन्मए बीओ । तत्तो सर्णकुमारो हवा चउत्यो प माहिदो ॥ १५ ॥ १०९१ ॥ पंचमए पुण संभो ण्डो पुण लंतओग्य देविंदो। सत्तमओ महसुको अट्ठमओं मधे सहस्सारो ॥१६४ ॥ १०९२॥ नवमो । अ आणइंदो दसमो उण पाणऽत्य देविदो । आरण इकारसमो पारसमो अधुए इंदो ॥१६॥ १०९३ ॥ एए। पट्षष्टिः सहस्राणि नव चैव शतानि पंचसाप्तानि । एकशशिपरीवारलारकगणकोटीकोटीनां ॥ १५८ ॥ वर्षसहस्रं पल्योपमं च सूर्याणां सा स्थिति णिता । पल्योपमं चन्द्राणां वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् ॥ १५९ ॥ पल्योपमं प्रहाणां नक्षत्राणां च जानीहि पल्योपमार्थ । पल्यचतुर्थो भागस्तारकाणां सा स्थितिर्भणिता ॥ १६० ।। पल्योपमाष्टभागः स्थितिर्जघन्या तु ज्योतिष्कगणस्य । पल्योपममुत्कृष्ट वर्षशतसह-IN साभ्यधिकं ।। १६१ ॥ भवनपतिन्यन्तरज्योतिष्कबासिनां स्थितिर्मया कथिता । कल्पपतीनपि वक्ष्ये द्वादशेन्द्रान् महर्विकान् ।। १६२॥ प्रथमः सौधर्मपतिरीशानपतिस्तु भण्यते द्वितीयः । ततः सनत्कुमारो भवति चतुर्थस्तु माहेन्द्रः ।।१६।। पंचमकः पुनर्मझा पाठः पुनर्लान्त-I4॥ ८॥ कोऽत्र देवेन्द्रः । सप्तमस्तु महाशुक्रोऽष्टमो भवेत्सहस्रारः ॥ १६४ ॥ नवमचानतेन्द्रो दशमः पुनः प्राणतोऽत्र देवेन्द्रः । आरण एकाद दीप अनुक्रम [१५८] JAHEbastihanimanand अथ वैमानिक-अधिकार: आरभ्यते ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१६६]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१६६|| दिपारस इंदा कप्पवई कप्पसामिया भणिया । आणाईसरियं वा तेण परं नत्थि देवाणं ॥ १६६ ॥ १०९४ ॥ तेण परं देवगणा सपछिपभावणाइ उववन्ना । गेविजेहिं न सको उववाओ अन्नलिंगेणं ॥१६७ ॥१०९५॥1 जे दंसणवावन्ना लिंगरगहण करति सामपणे । तेसिपिय उववाओ उकोसो जाव गेविजा ॥ १६८॥ १०९६ ॥ इत्थ किर विमाणाणं यत्तीसं वणिया सयसहस्सा । सोहम्मकप्पवइणो सकस्स महाणुभागस्स ॥ १६९॥ १०९७ ।। ईसाणकप्पवइणो अट्ठावीसं भवे सयसहस्सा । बारस्स सयसहस्सा कप्पम्मि सर्णकुमारम्मि ॥१७० ॥ १०९८ ॥ अद्वेष सयसहस्सा माहिदमि उ भवंति कप्पम्मि । चत्तारि सपसहस्सा कप्पम्मि उ6 हाभलोगम्मि ॥ १७१ ॥ १०९९ ।। इत्थ किर विमाणाणं पन्नासं संतए सहस्साई । चत्तारि महासुफे च | सहस्सा सहस्सारे ॥ १७२ ॥ ११०० ॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सया ऽऽरणचुए तिन्नि । सत्त विमाणस शो द्वादशोऽच्युत इन्द्रः ॥ १६५ ॥ एते द्वादश इन्द्राः कल्पपतयः कल्पखामिनो भणिताः । आज्ञा ऐश्वर्य वा ततः परं नास्ति देवानां 8॥ १६६ ॥ ततः परं देवगणाः स्वकेसितभावनायामुत्पन्नाः । भैवेयकेषु न शक्योऽन्यलिंगेनोपपातः ॥ १६७ ॥ ये व्यापनदर्शना लिंग ग्रहणं कुर्वन्ति श्रामण्ये । तेषामपि चोपपात उत्कृष्टो यावर अवेयके ॥१६८ ॥ अत्र किल विमानानां द्वात्रिंशद्वर्णितानि शतसहस्राणि ।। | सौधर्मकल्पपतेः शक्रस्य महानुभागस्ख ॥ १६९ ॥ ईशानकल्पपतेरष्टाविंशतिर्भवन्ति शतसहस्राणि । द्वादश शतसहस्राणि कल्पे सनत्कु मारे ॥ १५० ।। अष्टैष शतसहस्राणि माहेन्द्र तु भवन्ति कल्पे । चत्वारि शतसहस्राणि कल्पे तु ब्रह्मलोके ॥ १७१।। अत्र किल विमानानां पंचाशत् लान्तके सहस्राणि । चत्वारिंशत् महाशुके पटू प सहस्राणि सहस्रारे ॥ १७२ ॥ आनतप्राणतकल्पयोश्चत्वारि शतानि दीप अनुक्रम [१६६] JAMERadininamaiane ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१७३]------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया कल्पेषु प्रत सूत्रांक ||१७३|| प्रकीर्णकद याई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥ १७३ ॥ ११०१॥ एयाइ विमाणाई कहियाई जाई जत्थ कप्पम्मि । कप्पवई-14 शके ९ देहाणवि सुंदर! लिईविससे निसामेहि ॥ १७४ ॥११०२॥ दो सागरोवमाई सकस्स लिई महाणुभागस्स | विमाना वेन्दस्तवे ||साहीया ईसाणे सत्तेव सणकुमारम्मि || १७५ ॥११०३ ॥ माहिंदे साहियाई सत्स दस चेव बंभलोगम्मि। स्थितिः चउदस लंतइ कप्पे सत्तरस भवे महासुके ॥ १७६ ॥ ११०४ ॥ कप्पम्मि सहस्सारे अट्ठारस सागरोवमाई | ॥ ८७॥ ठिई । एगूणाऽऽणयकप्पे वीसा पुण पाणए कप्पे ॥ १७७ ॥ ११०५॥ पुण्णा य इकवीसा उदहिसनामाण, आरणे कप्पे । अह अचुयम्मि कणे बावीसं सागराण ठिई ॥१७८ ॥ ११०६ ॥ एसा कप्पवईणं कप्पठिई वणिया समासेणं । गेविज ऽणुतराणं सुण अणुभार्ग विमाणाणं ॥ १७९ ॥११०७॥ तिपणेव य गेविजा| साहिद्विला मज्झिमा य उपरिहा। विकपि यतिविहं नव एवं हृति गेविजा ।।१८०॥११०८।। सुदंसणा अमोहा य,12 आरणाच्युतयोत्रीणि । सप्त विमानशतानि चतुर्व पि एतेषु कल्पेषु ॥ १७३ ।। एतानि विमानानि कथितानि यानि यत्र कल्पे । कल्पपतीनामपि सुन्दरि! स्थितिविशेषान् निशमय ॥ १७४ ।। द्वे सागरोपमे शकस्य स्थितिमहानुभागमा । साधिके ईशाने सौव सनत्कुमारे ॥ १७५ ॥ माहेन्द्रे साधिकानि सप्त दशैव ब्रह्मलोके । चतुर्दश लान्त के कल्पे सप्तदश भवन्ति महाशुके ॥ १७६ ॥ कल्पे सहस्रारे, | अष्टादश सागरोपमाणि स्थितिः । एकोनविंशतिरानतकल्पे विंशतिः पुनः प्राणते कल्पे ।। १७७॥ पूर्णा एकविंशतिः उधिसनाम्नां पारणे *कल्पे । अथाच्युते कल्पे द्वाविंशतिः सागरोपमाणां स्थितिः ॥ १७८ ॥ एषा कल्पपतीनां कल्पस्थितिवर्णिता समासेन । मैवेयकानुत्तराणां ॥८॥ शृणु अनुभागं विमानानां ।। १७९ ॥ त्रीण्येव भैवेयकाणि अधस्तनानि मध्यमान्युपरितनानि च । एकैकस्मिंश्च त्रिविधानि नवैवं भवन्ति । 4%2529 दीप अनुक्रम [१७३] LJanthustiniamasana . ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक ||१८९ || दीप अनुक्रम [१८१] Eratimas प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [१८१]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ......आगमसूत्र [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया "देवेन्द्रस्तव” - सुप्पबुद्धा जसोधरा । बच्छा सुवच्छा सुमणा, सोमणसा पिपदंसणा ॥ १८९ ॥ ११०९ ॥ एकारसुत्तरं हेडिमए सतुसरं च मज्झिमए । सयमेगं उपरिमए पंचैव अणुत्तरविमाणा ॥ १८२ ॥ १११० || हेट्ठिमगेविजाणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई। इकिकमारुहिज्जा अहहिं सेसेहिं नमियंगी ! ॥ १८३ ॥ ११११ ॥ विजयं च वैजयंत जयंतमपराजियं च बोद्धवं । सङ्घट्टसिद्धनाम होइ चउन्हं तु मज्झिमयं ॥ १८४ ॥ १११२ ॥ पुषेण होइ विजयं दाहिओ होइ वैजयंतं तु । अवरेणं तु जयंतं अवराइयमुत्तरे पासे ।। १८५ ।। १११३ ॥ एएस विमाणेसु उ तिप्तीसं सागरोवमाई ठिई। सबसिद्धनामे अजनुकोस तित्तीसा ॥ १८६ ॥ १११४ ॥ हिद्विल्ला उबरिल्ला दो दो जुयलऽद्धचंदसंठाणा । पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिया मज्झिमा चउरो ॥ १८७ ।। १११५ ।। गेविखाऽऽवलिसरिसा त्रैवेयकाणि ॥ १८० ॥ सुदर्शनः अमोघः सुप्रबुद्धो यशोधरः । वक्षाः सुवक्षाः सुमनाः सौमनसः प्रियदर्शनः ॥ १८९ ॥ अघतने एकादशोत्तरं शतं सप्तोत्तरं शतं च मध्ये । शतमेकं उपरितने पंचैवानुत्तरविमानानि ॥ १८२ ॥ अधस्तनाधस्तनमैवेयकानां त्रयोविं शतिः सागरोपमाणि स्थितिः । एकैकं वर्धयेत् अष्टसु शेषेषु नमितांग ! ॥ १८३ ॥ विजयं च वैजयंतं जयन्तमपराजितं च बोद्धव्यं सर्वार्थसिद्धनाम भवति चतुर्णां तु मध्यमं ॥ १८४ ॥ पूर्वस्यां भवति विजयं दक्षिणतो भवति वैजयंतं तु । अपरस्यां तु जयन्तं अपरा जिवमुत्तरे पार्श्वे ॥ १८५ ॥ एतेषु विमानेषु तु त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः । सर्वार्थसिद्धनानि अजघन्योत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्सागरो| पमाणि ॥ १८६॥ अधस्तने उपरितने च द्वे द्वे युगले अर्धचन्द्रसंस्थाने । प्रतिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थिता मध्यमाश्चत्वारः (कल्पाः ) ||१८७ || Par P&Fate Use Only ~28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [१८८]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१८८|| प्रकीर्णक गेपिज्जा तिषिण तिण्णि आसना । हायसंठाणाई अणुत्तराई विमाणाई॥१८८ ॥ १९१६ ॥ घणपदहिप- वेयानुशके ९दे हाणा सुरभषणा दोसुटुंति कप्पेसुं । तिसु पाउपइटाणा तदुभपसुपरहिया तिमि ॥ १८९॥ १९१७ ॥ तेणाराः वेन्दस्तवे पर उवरिमया आगासंतरपइट्ठिया सवे । एस पइहाणविही उहुं लोए विमाणाणं ॥ १९० ॥ १९९८॥ किण्हा प्रतिष्ठान नीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाणं तेउलेसा मुणेपणा ॥ १९१ ॥ १९१९ ॥ कप्पे ॥ लेश्योच्चत्वे ८॥ सर्णकुमारे माहिदे चेव वंभलोए य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुषलेसा ७ ॥ १९ ॥ ११२०॥ कणगसयदरसामा सुरषसभा दोसु हुंति कप्पेसु । सिसु हंति पम्हगोरा तेण परं सुबिल्ला देवा ॥ १९३ ॥ ११२१ ॥ भवणवइयाणमंतरजोइसिया इंति सत्तरयणीया। कप्पवईणऽइसुंदरि। सुण उच्चत्तं सुरषराणं ॥१९४॥११२२। सोहम्मीसाणसुरा उच्चत्ते हंति सत्तरपणीया। दो दो कप्पा तुल्ला दोसुवि परिहायए रयणी ॥ १९५॥११२३॥181 प्रवेयकावलिसदृशानि मैवेयकाणि त्रीणि त्रीणि आसन्मानि । हुर्कसंस्थानानि अनुत्तराणि विमानानि ॥ १८८ ॥ घनोदधिप्रतिष्ठानानि सुरभवनानि द्वयोर्भवन्ति कल्पयोः । त्रिषु वायुप्रतिष्ठानानि तदुभयसुप्रतिष्ठितान्युपरि त्रिषु ॥ १८९ ।। ततः परमुपरितनानि आकाशान्तरप्रतिष्ठितानि सर्वाणि । एष प्रतिष्ठानविधिः ऊर्बलोके विमानानां ॥ १९० ॥ कृष्णा नीला कापोती तेजोलेश्या च भवनपतिज्यस्तराणां । ज्योतिष्कसौधर्मेशानानां तेजोलेश्या ज्ञातव्या ।। १९१ ॥ कल्पे सनकुमारे माहेन्द्रे चैव ब्रह्मलोके च । एतेषु पालेश्या ततः परं शुक्ललेश्या तु ॥१९२।। कनकत्वमक्तामाः सुरवृषभा भवन्ति द्वयोः करूपयोः । त्रिषु भवन्ति पागौरास्ततः पर शुक्लेश्याका देवाः ॥१९॥1 ॥ ८८ ॥ भवनपतिष्यन्तरज्योतिष्का भवन्ति सप्तरत्नयः । कल्पपतीनां अतिसुन्दरि ! शृणूषत्वं सुखराणां ॥ १९४ ॥ सौधर्मेशानसुरा उच्चत्वेन | दीप 45+CRACK4 अनुक्रम [१८८] ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१९६]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१९६|| गेविनेमु य देवा रयणी ओ दुखि हुंति उच्चाओ। रपणी पुण उच्चत्तं अणुत्तरविमाणवासीणं ।। १९६ ॥११२४॥ कपाओ कप्पम्मि उ जस्स ठिई सागरोवमभहिया । उस्सेहो तस्स भवे इकारसभागपरिहीणो ॥ १९७ ॥ ६॥११२५ ।। जो अ विमाणुस्सेहो पुढवीणं जंच होइ वाहल्लं । दुहंपि तं पमाणं बत्तीसं जोयणसयाई॥१९८४ ॥११२६ ॥ भवणवइयाणमंतरजोइसिया हुंति कापपवियारा । कप्पवईणवि सुंदरि ! घुछ पविषारणविही| उ॥ १९९ ॥ ११२७ ॥ सोहम्मीसाणेसुं सुरवरा टुंति कायपवियारा । सर्णकुमारमार्हिदेसु फासपवियारया देवा ॥ २००॥ ११२८ ॥ वंभे लंतयकप्पे सुरवरा हुंति रूवपवियारा । महसुषसहस्सारे सहपविपारया देवा ॥ २०१॥ ११२९ ।। आणयपाणपकप्पे आरण तह अधुए सुकप्पम्मि । देवा मणपविषारा तेण परं चूअपवियारा ॥ २०२॥ ११३० ॥ गोसीसागुरुकेयइपत्तपुन्नागवउलगंधा य । पयकुवलयगंधा सगरेलसुगंधगंधा भवन्ति सप्त रस्त्रयः । द्रौ द्वौ कल्पो तुल्यौ द्वयोरपि परिहीयते रमिः ॥ १९५ ।। अवेयकेषु देवा देवे रजी भवन्त्युच्चाः । रतिः पुनरवत्वं अनुत्तरविमानवासिना ॥ १९६॥ कल्पात् कल्पे तु यस्य स्थितिः सागरोपमेणाधिका । उत्सेधसस्य भवेत् एकादशभागपरिहीणः ॥१९७|| या विमानानामुत्सेधो वाइल्वं यच भवति पृथिव्याः । द्वयोरपि तत्प्रमाण द्वात्रिंशयोजनशतानि ॥ १९८॥ भवनपतिव्यम्तरयोतिष्का भवन्ति कायप्रविचाराः । कल्पपतीनामपि सुंदरि ! वस्ये परिचारणाविधि ॥ १९९॥ सौधर्मेशानयोः सुखरा भवन्ति कायप्रवीचाराः ।। सनकमारमाहेन्द्रयोः स्पर्शप्रविचारका देवाः ।। २००॥ ब्रह्मदेवलोके लांतके कल्पे सुरवरा भवन्ति रूपप्रवीचाराः । महाशुकसहस्रारयोः शब्दप्रवीचारका देवाः ॥ २०१॥ वानवप्राणतकरूपयोरारणे वथा अच्युते सुकल्पे । देवा मनःप्रवीचाराः ततः परं क्युवा दीप अनुक्रम [१९६] ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२०३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२०३|| _ प्रकीर्णकदलीय ॥२०३ ॥ ११३१ ॥ एसा णं गंधविही उवमाए वष्णिया समासेणं । दिट्ठीएवि य तिविहा थिरसुकुमारा शके ९३ फासेणं ॥ २०४ ॥ ११३२ ॥ तेवीसं च विमाणा चउरासीइं च सपसहस्साई । सत्ताणउई सहस्साई उहुं-IMI पुष्पायवेन्दस्तवे 18 लोए विमाणाणं ॥ २०५ ।। ११३३ ॥ अउणाणउई सहस्सा चउरासीई च सयसहस्साई। एगणपं दिवहुँ सयं | कीर्णाः |च पुप्फावकिपणाणं ॥ २०६॥ ११३४ ॥ सत्तेव सहस्साई सयाई बावत्तराई अट्ट भवे । आवलियाइ विमाणा सेसा पुष्पावकिपणाणं ॥ २०७॥ ११३५ ।। आवलिआइ विमाणाण अंतरं नियमसो असंखिळ । संखिजहमसंखिजं भणियं पुष्फायकिनाणं ॥ २०८ ॥ ११३६ ॥ आवलियाइ विमाणा वहा तंसा तहेव चउरसा। हैं। पुप्फावकिपणया पुण अणेगविहरूवसंठाणा ॥ २०९ ॥११३७ ॥ वह खु वलयगंपिव तंसा सिंघाडयंपिव विमाणा । चउरंसविमाणा पुण अक्खाडयसंठिया भणिया ॥ २१ ॥११३८ । परमं वविमाणं बीयं तंसं वीचाराः ॥ २०२ ।। गोशीर्षागुरुकेतकीपत्रपुनागवकुलगन्धाश्च । चम्पककुवलयगन्धाः तगरैलासुगन्धिगन्धाश्च ॥ २०३ ॥ एष गन्धदाविधिरुपमया वर्णितः समासेन । रयाऽपि च त्रि(वि)विधाः स्थिरसुकुमाराच स्पर्शेन ।। २०४ ॥ त्रयोविंशतिश्च विमानानि चतुरशीतिश्चद शतसहस्राणि । सप्तनवतिः सहस्राणि ऊर्वलोके विमानानां ॥ २०५॥ एकोननवतिः सहस्राणि चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि । एकोनं | चार्धद्वयशनं च पुष्पावकीर्णानाम् ॥ २०६ ।। सप्तैव सहस्राणि द्वासप्ततानि शतानि चाष्ट भवंति । आवलिकासु विमानानि शेषाणि पुष्पा-13 वकीणानि ।। २०७ ॥ आवलिकायां विमानानामन्तरं नियमेनासंख्येयं ( योजनानां ) । संख्येयमसंख्येयं भणितं पुष्पावकीर्णानां ॥२०॥ आवलिकायां विमानानि वृत्तानि व्यत्राणि चतुरस्राणि तथैव । पुष्पावकीर्णानि पुनरनेकविधरूपसंस्थानानि ॥ २०९ ।। वृत्तानि खलु वल-10 CrickCCASSACH दीप अनुक्रम [२०३] JAMERestiniamasan ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं २११]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया + प्रत सूत्रांक ||२११|| तहेच चउरंसं । एगंतरचउरंसं पुणोवि वदं पुणो तसं ॥ २११ ॥ ११३९ ।। बढे वहस्सुवरि तसं तंसस्स उप्परि दाहोह। परंसे बजरंसं उहुं तु विमाणसेदीओ ॥२१२॥ ११४० ।। उबलंवयरओ सबविमाणाण हंति समि*याओ । उवरिमचरिमंताओ हिद्विल्लो जाव चरिमंतो॥ २१३ ॥ ११४१ ।। पागारपरिक्खित्ता बद्दविमाणा हवंति सधेवि । चउरंसविमाणाणं चउहिसि वेइया भणिया ॥ २१४ ॥ ११४२ ।। जत्तो बद्दविमाणं तत्तो है सस्स वेइया होइ । पागारो योद्धयो अवसेसाणं तु पासाणं ॥ २१५ ॥ ११४३ ॥ जे पुण वदृषिमाणा एग वारा हवंति सवि । तिनि य तंसविमाणे चत्तारि य हुंति चउरसे ॥ २१६ ॥ ११४४ ॥ सत्तेव य कोडीओ हवंति पावत्तरि सयसहस्सा । एसो भवणसमासो भोमिजाणं सुरवराणं ॥२१७ ॥ ११४२॥ तिरिओयवा| यमिव व्यत्राणि अंगाटकमिव विमानानि । चतुरनविमानानि पुनः अक्षाटकसंस्थितानि भणितानि ।। २१० ।। प्रधर्म पूत विमानं द्वितीयं | व्यनं तथैव चतुरखं । वृत्तात एकान्तरेण चतुरनं पुनरपि वृचं पुनरुयनं ।। २११ ।। वृत्तं वृत्तस्योपरि व्यसं ध्यत्रस्योपरि भवति । चतुरसस्य चतुरनं अवं तु विमानश्रेणयः ( एवं) ।। २१२ ।। अबलम्बनरजवः सर्वविमानानां भवन्ति समाः । उपरितनचरमान्ताद् याव-1 दधस्तनभरमान्तः ।। २१३ ।। प्राकारपरिक्षिप्तानि वृत्तानि विमानानि भवन्ति सर्वाण्यपि । चतुरस्रविमानानां चतसपु दिक्षु बेदिका भणिता PI॥२१४॥ यतो वृत्तविमानं ततक्ष्यनस्य वेदिका भवति । प्राकारो बोद्धव्यः अवशेषयोस्तु पार्श्वयोः ।। २१५ ॥ यानि पुनर्वृत्तविमानानि | एकद्वाराणि अवन्ति सर्वाण्यपि । त्रीणि च व्यस्रविमाने चत्वारि च भवन्ति चतुरने ।। २१६ ।। सप्तैव च कोरयो भवन्ति द्विसप्ततिः । शतसहस्राणि । एष भवनसमासो भौमेयकाना सुरवराणां ।। २१७ ।। तिर्यगुपपातिकानां भौमानि नगराणि असंख्येयानि । ततः दीप अनुक्रम [२११] JIMEREatinanathaians ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक ||२१८|| दीप अनुक्रम [२१८] प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [२१८]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया Eardinimas “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकद वृत्तादीनि |इयाणं रम्मा भोम्मनगरा असंखिखा । तत्तो संखिज्जगुणा जोइसियाणं विमाणा उ ॥ २९८ ॥। ११४६ ॥ धोवा शके ९ - ७ विमाणवासी भोमिज्जा वाणमंतरमसंखा । तत्तो संखिजगुणा जोइसवासी भवे देवा ॥ २१९ ॥। ११४७ ॥ ४ अल्पबहुत्वं वेन्दस्तवे * पत्तेयविमाणाणं देवीणं छन्भवे सपसहस्सा । सोहम्मे कप्पम्मि उ ईसाणे हुंति चत्तारि ॥ २२० ॥। ११४८ ॥ ॥ ९० ॥ पंचैवणुत्तराई अणुत्तर गईहिं जाएं दिट्ठाई । जत्थ अणुत्तरदेवा भोगसुहमणुवमं पत्ता ॥ २२९ ॥। ११४९ ॥ जस्थ अणुत्तरगंधा तहेव रूवा अणुत्तरा सद्दा । अचित्तपुग्गलाणं रसो अ फासो अ गंधो अ ॥ २२२॥। ११५० ॥ पप्फोडियकलिकलुसा पष्फोडियकमलरेणुसंकासा । वरकुसुममहुकरा इव सुहमपरं नंदि (दंति) घोडंति | ।। २२३ ।। ११५१ ।। वरपउमगन्भगोरा सबै ते एगगन्भवसहीओ। गन्भवसहीविमुक्का सुंदरि ! सुक्खं अणुहवंति ॥ २२४ ॥ ११५२ ॥ तेतीसाए सुंदरि ! वाससहस्सेहिं होइ पुण्णेण । आहाराऽयहि देवाणऽणुत्तरविसंख्येयगुणानि ज्योतिष्काणां विमानानि ॥ २१८ ॥ स्तोका विमानवासिनो भौमेया व्यन्तरा असंख्येयाः । ततः संख्येयगुणा ज्योतिष्कवासिनो भवन्ति देवाः ॥ २१९ ॥ प्रत्येकं वैमानिकानां देवीनां पट भवन्ति शतसहस्राणि सौधर्मे कल्पे तु ईशाने भवन्ति चत्वारि शतसहस्राणि ॥ २२० ॥ पंचैवानुत्तराणि अनुत्तरगतिभियांनि दृष्टानि । यत्रानुत्तरदेवा भोगसुखमनुपमं प्राप्ताः ॥ २२१ ॥ यत्र अनुत्तरगन्धास्तथैव रूपाणि अनुत्तराणि शब्दाच । अचित्तपुद्रलानां रसच स्पर्शञ्च गन्धन ।। २२२ ।। प्रस्फोटित कलिकालुष्याः प्रस्फुटित कमलरेशुसंकाशाः । वरकुसुममधुकरा इव सूक्ष्मतरं नन्दि घोषयन्ति (आखादयन्ति ॥ २२३॥ पद्मगर्भगौराः सर्वे ते एकगर्भवस्तयः । गर्भवसतिविमुक्ताः सुन्दरि ! सौख्यमनुभवन्ति ॥ २२४ ॥ त्रयत्रिंशति पूर्णायां वर्षसहस्राणां सुन्दरि ! पुण्येन । आहारावधिर्देवानां अनुत्तरविमानवा Pa Pa Fate Use O ~33~ ॥ ९० ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [२२५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२२५|| PRAKREC-- माणवासिणं ॥ २२५ ॥ ११५३ ॥ सोलसहि सहस्सेहिं पंचेहिं सरहिं होइ पुण्णेहिं । आहारो देवाणं मज्झिममा धरिताणं ॥ २२६ ।। ११५४ ।। दस वाससहस्साई जहन्नमाउं धरंति जे देवा । तेसिपि य आहारो चउत्थभत्तेण योद्धयो ।। २२७॥ ११५५ ॥ संवच्छरस्स मुंदरि! मासाणं अद्वपंचमाणं च । उस्सासो देवाणं| अणुत्तरषिमाणवासीणं ॥ २२८ ॥ ११५६ ॥ अट्टमेहिं राइंदिएहिं अहहि प सुतणु ! मासेहिं । उस्सासो देवाण मज्झिममा धरिताणं ।। २२९ ॥ ११५७ ।। सत्तण्हं थोवाणं पुषणाणं पुण्णइंदुसरिसमुहे। । ऊसासो| देवाणं जहन्नमाउं धरिताणं ॥ २३० ॥ ११५८ ।। जइ सागरोवमाई जस्स ठिई तस्स तत्तिएहि पक्रोहिं। ऊसासो देवाणं वाससहस्सेहिं आहारो ॥ २३१ ॥ ११५९ ॥ आहारो ऊसासो एसो मे वनिओ समासेणं । 18 सुहुमंतरायनाहि! (घणाहि) सुंदरि! अचिरेण कालेण ॥ २३२ ॥ ११६० ॥ एएसिं देवाणं ओही उ विसे सिनाम् ॥ २२५ ।। पोदशभिः सहस्रैः पूर्णैः पञ्चभिः शतैर्भवति । आहारो देवानां मध्यममायुर्धरणाम् ।। २२६॥ दश वर्षसहस्राणि जघन्यमायुर्धरन्ति ये देवाः । तेषामपि चाहारचतुर्षभक्तेन बोद्धव्यः ।। २२७ ॥ संवत्सरे अर्धपश्चसु मासेषु च सुन्दरि! । तरुलासो देवा-| नामनुत्तरविमानवासिनाम् ॥२२८ ।। अष्टसु मासेषु सार्धसप्तसु सुतनो ! रात्रिन्दिवेषु च । उपट्टासो देवानां मध्यममायुधरताम् ।।२२९॥ | सप्तसु स्तोकेषु पूर्णेषु पूर्णेन्दुसदृशमुखि! । उच्छ्रासो देवानां जघन्यमायुर्धरताम् ॥ २३०॥ यति सागरोपमाणि यस्य स्थितिस्तस्य ततिभिः | पः । उच्दासो देवानां वर्षसहस्रैराहारः ।। २३१ । आहार तच्छ्रास एप मया वर्णितः समासेन । सूक्ष्मान्तरायनाभे! सुन्दरि! अचि-12 च.स १५रेण कालेन ।। २३२ ॥ एतेषां देवानामवधिस्तु विशेषतस्तु यो यस्य । तं सुन्दरि! वर्णयिष्याम्यहं यथाक्रर्म आनुपूर्त्या ॥ २३३ ॥ ACKSEAC-ACCESSOCCCC - दीप - अनुक्रम - [२२५]] CAMERessaniiomaina ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२३३]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२३३|| मकीर्णकव-तासमोजो जस्स | संदरि पपणेऽहं अहम आणुपुवीए २३ ॥ ११९९ ॥ सोहम्मीसाण पढम दुषं। विमानिकाशके ९ पसणकुमारमाहिंदा ।तपंचमलतग मुकसहस्सारय पत्थि ॥२३४॥ ११३२॥ आणपपाणयकप्पे देवानामवधिः वेन्दस्तवे[पासति पंचमि पुषितंचेचारणचुप ओहियनाणेण पासंति ॥ २३५ ॥ ११५३॥ एहि हिहिममजिनम गेषिया सत्तमि च षषरिल्ला । संभिललोगनालिं पासंति अणुसरा देवा ॥ २३६॥ ११६४ ॥ संखिजजोयणा ॥ ९१॥४ माखलु देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखिजा जहन्नयं पनवीसं तु ॥ २३७ ॥ ११३५ ।। तेण परमसंखिजा तिरियं दीवा य सागरा चेव । बहुपयरं उवरिमया उहूं तु सकप्पथभाई ॥२३८ ॥ ११६६ ॥ मेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सयाहिरा हुँति । पासंति सपओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥ २३९ ॥ ११६७ ॥ ओहिनाणे | विसओ एसो मे वणिओ समासेणं । पाहलं उच्चत्तं विमाणवन्नं पुणो बुच्छं ॥ २४० ॥ ११६८ ॥ सत्तावीसं सौधर्मेशानाः प्रथमा द्वितीयां च सनत्कुमारमाहेन्द्राः । तृतीयां च ब्रह्मलान्तकाः शुक्रसहस्रारकाच चतुर्थीम ।। २३४ ॥ आनतप्राणतकल्पयोर्देयाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथ्वीम् । तामेवारणान्युना अवधिज्ञानेन पश्यन्ति ॥ २३५ ॥ षष्ठी अधस्तनमध्यमप्रैधेयकाः सप्तमी चोपरितनाः । संपूर्णलोकना लिकां पश्यन्तानुसरा देवाः ॥ २३६ ॥ देवानामूनेऽसागरोपमे आयुषि संख्येययोजनानि । ततः परमसंख्येयानि जघन्यतः पञ्चविंशति (पश्यन्ति ) ॥ २३७ ।। ततः परेऽसंख्येया द्वीपाः सागराधैव तिर्यक् । उपरितना यहुकं तु |खकल्पस्तूपान् ॥ २३८ ।। नैरयिकदेवतीर्थकरावावधेरबाह्या भवन्ति । पश्यन्ति सर्वतः खलु शेषा देशेन पश्यन्ति ।। २३५ ।। अव-18||९१ ॥ धिज्ञाने विषय एष मया वर्णितः समासेन | वाहल्यं उच्चत्वं विमानवर्ण पुनर्वक्ष्ये ।। २४० ॥ सप्तविंशतियोजनशतानि पृथ्वीना तयोः - दीप - अनुक्रम [२३३] JAMERatindiamanand ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२४१]-------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२४१|| जोयणसपाई पुढवीण ताण [होस्] बाहलं । सोहम्मीसाणेसुं रयणविचित्ता प सा पुढवी ॥ २४१ ॥ ११३९॥ तत्थ विमाणा बहुथिहा पासायपगइवेइयारम्मा । वेरुलिययूभियागा रयणामयदामलंकारा ॥२४२॥११७०॥ केइत्यासियविमाणा अंजणधाउसरिसा सभावेणं । अपरिहसवण्णा जत्थावासा सुरगणाणं ॥ २४३ ॥ ॥ ११७१ ॥ केइ य हरियविमाणा मेयगधाऊसरिसा सभावेणं । मोरग्गीवसवण्णा जत्थाधासा सुरगणाणं CI॥२४४ ॥११७२॥ दीवसिहासरिसवपिणत्व कई जासुमणसूरसरिसवन्ना। हिंगुलुयधाउवण्णा जत्थावासा। सुरगणाणं ॥ २४५ ॥ ११७३ ॥ कोरिटघाउपण्णित्व कई फुल्लकणियारसरिसवपणा य । हालिदभेयवण्णा जत्वावासा सुरगणाणं ॥ २४६ ॥ ११७४ ॥ अविउत्तमल्लदामा निम्मलगाया सुगंधनीसासा। सवे अचट्ठियबया सयंपभा अणिमिसच्छा य ॥ २४७ ॥ ११७५ ॥ बावत्तरिकलापंडिया उ देवा हवंति सोऽपि । भवसंचाहल्यम् । सौधर्मेशानयोः विचित्रा प सा पृथ्वी ॥ २४१ ॥ तत्र विमानानि बहुविधानि प्रासादप्रकृतिवेदिकारम्याणि । वैडूर्यस्तूपिकानि रत्नमयदामालकाराणि ॥ २४२ ॥ कानिचिदन्न कृष्णानि विमानानि अञ्जनधातुसदशानि खभावेन । आर्द्राकरिष्ठसवर्णानि यत्रावासाः सुरगणानाम् ।। २४३ ॥ कानिचिच्च हरितानि विमानानि भेदकधातुसदृशानि खभावेन । मयूरपीवसवर्णानि यत्रावासाः सुरगणानाम् ॥ २४४ ॥ दीपशिखासदशवर्णान्यत्र कानिचित् जपासूरसरवर्णानि । हिंगुलकधातुवर्णानि यत्रावासाः सुरगणानाम् ।। २४५ ।। कोरण्टधातुवर्णान्यत्र कानिचित् विकसितकर्णिकारसदृशवर्णानि । हारिद्रभेदवर्णानि यत्रावासाः सुरगणानाम् ॥ २४६ ॥ अवियुक्तमादिल्यदामानो निर्मलगावाः सुगा धनिःश्वासाः । सर्वेऽवस्थितवयसः स्वयंप्रभा अनिमेपाक्षाध ॥२४४॥ द्वासप्ततिकलापण्डितास्तु देवा भवन्ति । दीप अनुक्रम [२४१] JAHEdustaminatianit ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) -------------- मूलं [२४८]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२४८|| ॥१२॥ नम् कमणे तेसि पडिवाओ होइ नायचो ॥ २४८ ॥ ११७६ ।। कहाणफलविवागा सच्छंदविउवियाभरणधारी मानिन आभरणवसणरहिया हयंति साभाषिपसरीरा ॥२४९ ॥ ११७७ ॥ चतुलसरिसवरूवा देवा इम्मि ठिडविसेसम्मि । पञ्चग्गहीणमहिमा ओगाहणवण्णपरिमाणा ॥ २५०॥११७८ ॥ किण्हा नीला लोहिय हालिदादिवर्ण सुकिला विराति । पंचसए उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु ॥ २५१ ॥ ११७९॥ तत्थासणा बहुविहा सप-2 |णिज्जा मणिभत्तिसयविचिसा । विरहपवित्थडभूसा रयणामयदामलंकारा ॥ २५२ ॥ ११८०॥ छचीस जोयणसयाई पुढवीणं ताण होइ पाहल्लं । सर्णकुमारमाहिदे रयणविचित्ता प सा पुढवी ॥२५३ ॥ ११८१॥ नत्य प नीला लोहिय हालिद्दा सुकिला विरायंति । उच सए उविद्धा पासाया तेसु कप्पेसु ॥२५४ ॥११८२॥12 तत्य विमाणा बहुविहा० (२४२)॥२५५||११८३।। पण्णावीसं जोअणसयाई पुढवीण होह पाहलं। भयलंतय-|| | सर्वेऽपि । भवसंक्रमणे तेषां प्रतिपातो भवति ज्ञातस्यः ।। २४८॥ कल्याणफलविपाकाः स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः । आभरणवसन-| रहिता भवन्ति स्वाभाविकशरीराः ॥ २४९ ॥ वृत्तसर्पपरूपा देवा एकस्मिन् स्थितिविशेषे । प्रत्यमा अहीनमहिमाबगाहवर्णपरिणामाः ॥ २५०| कृष्णा नीला लोहिता हारिद्राः शुक्लाः बिराजन्ते । पंच शतान्युद्विद्धाः प्रासादास्तेषु कल्पेषु ।। २५१॥ तत्रासनानि बहुविधानि शयनीयानि मणिभक्तिशतविचित्राणि । विरचितविस्तृतभूपाणि रत्नमयदामालंकाराणि ।। २५२ ॥ पविंशतिर्योजनशतानि पृथ्वीनां तयोः भवति चाहल्यम् । सनकुमारमाहेन्द्रयोः रणविचित्रा च सा पृथ्वी ।। २५३ ॥ तत्र च नीला लोहिता हारिद्राः शुक्ला विराजन्ते ॥ ९ ॥ पच शतान्युद्विद्धाः प्रासादाः तेषु कल्पेषु ॥ २५४ ॥ तत्र विमानानि बहुविधानिक ॥ २५५ ॥ पंचविंशतिर्योजनानि पृथ्वीनां भवति । दीप अनुक्रम [२४८] HETrainivarnista ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२५६]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२५६|| AGRAM कप्पे रयणविचित्ता य सा पुढची ॥ २५६ ॥ ११८४ ॥ तत्थ विमाणा बहुविहा० ॥२५७ ॥ ११८५ ।। लोहियहालिदा पुण सुकिलयाणा य ते विराति । सत्तसए उबिद्धा पासाया तेसु कप्पेसु ॥ २५८ ॥ ११८६ ॥ चउ-1८। |वीसं जोपणसयाई पुढचीण होइ वाहलं । सुके य सहस्सारे रयणविचित्ता य सा पुढवी ॥ २५९ ॥ ११८७ ॥18 कातत्थ विमाण बहुविहा०॥ २६० ॥ १९८८ ॥ हालिद्दभेयवपणा सुफिलवण्णा य ते विराति । अट्ट य ते उ-16 हाबिद्धा पासाया तेसु कप्पेसुं ॥ २१ ॥११८९॥ तत्थासणा बहुविहा० ॥२६२॥११९०॥ तेवीसं जोयणसयाई पुढवीणं [उण] तासि होइ पाहल्लं । आणयपाणयकप्पे आरणचुए [रयण]विचित्ता सा पुढवी ॥२६३ ।।। ॥ ११९१ ।। तत्थ विमाणा बहुविहा०॥ २६४ ॥११९२ ।। संखंकसनिकासा सबे दगरयतुसारसिरिवण्णा। दानव य सए उबिद्धा पासाया तेसु कप्पेसुं ।। २६५ ॥११९३ ।। बावीसं जोयणसयाई पुढवीणं तासिं होई वाइल्यं । ब्रह्मलान्तककल्पयो रजविचित्रा च सा पृथ्वी ।। २५६ ॥ तत्र विमानानि० ।। २५७ ॥ लोहिता हारिद्राः पुनः शुष्ठवर्णा| स्ते विराजन्ते । सप्त शतान्युद्विद्धाः प्रासादास्तेषु कल्पेषु ।। २५८ ॥ चतुर्विशतिर्योजनशतानि पृथ्व्या भवति थाइल्यम् । शुक्रसहस्रारयोः13 स्त्रविचित्रा च सा पृथ्वी ।। २५९ ।। तत्र विमानानि बहुविधानि०॥२६०॥ हारिद्रभेदवर्णाः शमवर्णाश्च ते विराजन्ते । अटी पर योजनशतान्युद्विद्धाः प्रासादास्तयोः कल्पयोः ॥ २६१ ॥ तत्रासनानि बहुविधानि० ॥ २६२ ।। त्रयोविंशतिर्योजनशतानि पृथ्वीनां तासां: पुनर्भवति वाहल्यम् । आनतप्राणतकल्पयोरारणाच्युतयोश्च रत्नविचित्रा तु सा पृथ्वी ॥२६३॥ तत्र विमानानि बहुविधानिः ॥ २६४ ॥ | शहाइसन्निकाशाः सर्वे दकरजरतुषारसदृग्वर्णाः । नव च शतान्युद्विद्धाः प्रासादास्तयोः कल्पयोः ।।२६५।। द्वारिंशतियोजनशतानि पृथ्वीनां 18 दीप अनुक्रम [२५६] JAMERananathaiana ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२६६]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२६६|| प्रकीर्णकद- बाहुलं । गेविजबिमाणेसु रपणविचित्ताप सा पुरवी ॥२६६ ॥ ११९४ ॥ तत्थ विमाणा पहविहा०॥२६७४ वैमानिकशके ९ दे ॥ ११९५ ॥ संखंकसनिकासा सवे वगरपतुसारसरिषपणा । दस य सए उषिद्धा पासाया ते विरापंति| देवमासावेन्दस्तवे ॥२६८ ॥ ११९६ ॥ एगवीस जोपणसयाई पुषीणं तेसि होइ वाहलं । पंचसु अणुसरेसुं रयणविचित्ता य दादिवर्ण 18सा पुढवी ॥ २३९ ॥ ११९७ ॥ तस्य विमाणा बहुविहा०॥ २७०॥ ११९८ ॥ संखंकसन्निकासा सबे दगरय-10 नम् ॥ ९३॥ | तुसारसरिवपणा । इकारसउषिद्धा पासापा ते विरापंति ।। २७१ ।। ११९९ ॥ तत्थासणा पहुयिहा सपणिज्जा| मणिभत्तिसपविचिसा। विरइयविवहादसा य रपणामयदामलंकारा ।। २७२ ॥ १२००॥ सबढविमाणस्स | उ सवरिल्लाउ धूभियंताओ । वारसहि जोअणेहिं इसिपम्भारा तओ पुठवी ॥२७३ ॥१२०१ ॥ निम्मलद-| गरयवण्णा तुसारगोखीरफेणसरिवषणा । भणिया उ जिणधरेहि उत्साणयउससंठाणा ॥ २७४ ॥ १२०२॥ तासां भवति वाइल्यम् । अवेयकविमानेषु रत्नविचित्रा तु सा पृथ्वी ॥ २६६ ।। तत्र विमानानि बहुविधानि० ॥ २६ ॥ शशासनि काशाः सर्वे करजस्तुषारसहवर्णाः । दश च शतान्युढिवाः प्रासादास्ते विराजन्ते ॥ २६८ ॥ एफविंशतिर्योजनशवानि पृथ्वीना तास दभवति बाहल्यम् । पंचस्खनुजरेषु रअविचित्रा च सा पृथ्वी ।। २६९ ॥ तत्र विमानानि बहुविधानि० ॥ २५० ॥ शंखांकसंनिकाशाः सर्वे दकर जातुषारसदृग्वर्णाः । एकादश शतान्युदिताः प्रासादास्ते विराजन्ते ॥ २७१ ।। तत्रासनानि बहुविधानि शयनीयानि मणिभशक्तिशतविचित्राणि । विरचितविस्तृतदूष्याणि रजमयदामालंकाराणि च ।। २७२ ॥ सर्वार्थ सिद्धविमानस्य सर्वोपरितनात् स्तूपिकान्वात् । ९३ ॥ ततो द्वादशसु योजनेषु ईपत्प्राग्भारा पृथ्वी ॥ २७३ ॥ निर्मलदकरजोवर्णा तुषारगोनीरफेनसहवर्णा । भणिता तु जिनवरैरुत्तानक दीप अनुक्रम [२६६] JIMEReatinaatmassna अथ ईषत्-प्रारभारापृथ्वी एवं सिद्ध-अधिकार: आरभ्यते ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) प्रत सूत्रांक || २७५|| दीप अनुक्रम [२७५] Jan Eatinima “देवेन्द्रस्तव” प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [२७५]-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... ... आगमसूत्र [३२] प्रकीर्णकसूत्र [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया - पणपालीसं आयामवित्थडा होह सपसहस्साइं । तं तिउणं सविसेस परीरओ होह बोद्धषो ।। २७५ ।। १२०३।। एगा जोयणकोडी बायालीसं च सपसहस्साई । तीसं चेव सहस्सा दो अ सया अउणपन्नासा ॥ २७६ ॥ ।। १२०४ ॥ खिसद्धयविच्छिक्षा अहेव य जोयणाणि बाहलं । परिहायमाणी चरिमंते मच्छियपत्ताउ तयघरी || २७७ || १२०५ ॥ संखंकसन्निकासा नामेण सुदंसणा अमोहा य । अजुणसुवण्णयमई उत्ताणपछसठाणा ॥ २७८ ॥ १२०६ ।। ईसीफन्भाराए सीआए जोअणंमि लोगंतो । तस्सुवरिमम्मि भाए सोलसमे सिद्धमोगाडे ।। २७९ ।। १२०७ || कहिं पहिया सिद्धा ?, कहिं सिद्धा पट्टिया । कहिं योंदिं चहत्ताणं, कत्थ गंतूण सिझई ! ॥ २८० ॥। १२०८ ॥ अलोए पहिया सिद्धा, लोयग्गे य पट्टिया । इहं बोंदिं चहत्ताणं, तत्थ गंतॄण सिज्झई || २८१ ।। १२०९ ॥ जं ठाणं तु इहं भवं वयंतस्स चरमसमयम्मि । आसी य पएछत्रसंस्थाना || २७४ || पंचचरवारिंशत्सहस्राणि आयामविस्ताराभ्यां भवन्ति । तत्रिगुणानि सविशेषाणि परिरयो भवति बोद्धव्यः ॥ २७५॥ एका योजनानां कोटी द्वाचत्वारिंशच शतसहस्राणि । त्रिंशचैव सहस्राणि द्वे च शते एकोनपंचाशत् ॥ २७६ ॥ क्षेत्रार्थकेऽष्ट योजनानि थावत् बाहुल्यमष्ट योजनानि । परिहीयमाना चरमान्तेषु मक्षिकापत्रात् तनुतरा || २७७ ॥ शंखांकसन्निकाशा नाम्ना सुदर्शना अमोधा च । अर्जुनमुवर्णमयी उत्तानरुच्छत्रसंस्थिता ॥ २७८ ॥ ईषत्प्राग्भारायाः सीतापराभिधानायाः योजने लोकान्तः । तथोपरितनभागे षोडशे सिद्धा अवगाढाः ।। २७९॥ केन सिद्धाः प्रतिहताः क सिद्धाः प्रतिष्ठिताः । क बोन्दि त्यक्त्वा क गत्वा सिद्धयन्ति १ ॥ २८० ॥ अटोकेन प्रतिहताः सिद्धा लोकामे च प्रतिष्ठिताः । इह बोन्दि व्यक्त्वा तत्र गत्वा सिध्यंति ॥ २८९ ॥ यत् संस्थानं तु इद्द भवं त्यजतश्चरमसमये Far Plate they ~40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२८२]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया EX % प्रत सूत्रांक ||२८|| % प्रकीर्णकद- सघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥ २८२ ॥ १२१० ॥ दीहं वा हस्सं वाजं संठाणं हविन चरमभवे । तत्तो तिभाशके ९देगहीणी सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥ २८३ ॥ १२११ ।। तिनि सया छासट्टा धणुत्तिभागो अ होइ बोद्धबो। स्थानाववेन्दस्तवे एसा खलु सिद्धाणं पक्कोसोगाहणा भणिया ॥ २८४ ॥ १२१२॥ चत्तारि य रयणीओ रपणी तिभागणिया | गाहादि प योद्धषा । एसा खस्लु सिद्धाणं मज्झिमओगाहणा भणिया ॥ २८५ ॥ १२१३ ॥ इका य होइ रयणी अहेव | य अंगुलाई साहीपा । एसा खलु सिद्धाणं जहण्णओगाहणा भणिया ॥ २८६ ॥ १२१४ ॥ ओगाहणाइ सिद्धा भवतिभागेण हुंति परिहीणा । संठाणमणित्यंत्थं जरामरणविप्पमुकाणं ॥ २८७ ॥ १२१५ ॥ जस्थ य एगी| सिद्धो तत्थ अर्णता भवक्खयविमुक्का । अनुन्नसमोगाढा पुट्टा सबै अलोगते ॥ २८८ ॥ १२१६ ॥ असरीरा जीवघणा उचउत्ता दसणे य नाणे य । सागारमणागारं लकवणमेयं तु सिद्वाणं ॥२८९ ॥१२१७॥ आसीच प्रदेशधनं तत् संस्थानं तत्र तस्य ॥२८२।। दीर्घ वा इव वा यत् प्रमाण भवेत् चरमभवे । सतविभागहीना सिद्धानामवगाहना | भणिता ।। २८३ ॥ श्रीणि शतानि पद्पष्टिर्धनुषस्तृतीयो भागा भवति योद्धव्यः । एपा खलु सिद्धानामुत्कष्टावगाहना भणिता ॥ २८४ ।।। चतस्रो रत्नयो रविषिमागोना च बोद्धव्या । एषा खलु सिद्धानां मध्यमाऽवगाइना भणिता ।। २८५ ।। एका च भवति रनिरष्टावे-IN वांगुलानि साधिकानि । एषा खलु सिद्धानां जपन्यिकाऽवगाइना भणिता ॥ २८६ ॥ अवगाहनायां सिद्धा भवत्रिभागेन भवन्ति परिहीनाः । संस्थानमनित्वस्थं जरामरणविप्रमुक्तानाम् ॥ २८७ ॥ यत्रैकः सिद्धस्तत्रानन्ता भवक्षयविप्रमुक्ताः । अन्योऽन्यसमवगादाः ॥९४ ॥ स्पृष्टाः सर्वेऽलोकान्ते ।। २८८ ।। अशरीरा जीवधना उपयुक्ता दर्शने व ज्ञाने च । साकारत्वमनाकारत्वं च लक्षणमेतत्तु सिद्धानाम् | % दीप * अनुक्रम [२८२] JAHEluatiharanisma wjantiraman ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [२९०]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२९०|| फुसइ अणते सिद्धे सच्चपएसेहि णियमसो सिद्धो । तेवि असंखिजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥२९०॥ १२१८॥! केवल नाणुवउत्ता जाणती सवभावगुणभाचे। पासंति सबओ खलु केवल दिहीअणंताहि ॥ २९१ ॥ १२१९ ॥ नाणमि दंसणम्मि य इत्तो एगयरम्मि उवउत्ता । सबस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उपओगा ॥ २९२ ॥ ॥ १२२० ।। सुरगणसुहं समत्तं सवापिडियं अणंतगुणं । नवि पावद मुत्तिसुहं गंताहिं बग्गवहिं ॥ २९३ ।। १२२१ ।। नवि अस्थि माणुसाणं तं सुक्खं नवि य सबदेवाणं । जं सिद्धाणं सुक्खं अवावाहं उवगयाण ॥ २९४ ॥ १२२२ ॥ सिद्धस्स सुहो रासी सघद्धापिंडिओ जइ हविजा । शंतगुणवग्गुभइओ सधागासे न माइज्जा ॥ २९५ ॥ १२२३ ॥ जह नाम कोई मिच्छो नयरगुणे बहुविहे वियाणतो। न चएह परिकहे। | उवमाए तर्हि असंतीए ॥ २९६ ॥१२२४ ॥ इअ सिद्धाणं सुक्खं अणोवर्म नत्थि तस्स ओवम्म । किंचि वि।। २८९ ।। स्पृशति अनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैर्नियमतः सिद्धः । ये देशप्रदेशैः स्पृष्टास्तेऽप्यसंख्येयगुणाः ॥ २९० केबलकानोपार युक्ता जानन्ति सर्वपदार्थगुणभावान् । पश्यन्ति सर्वतः खलु केवलदृष्टिमिरनन्ताभिः ।। २९१ ।। ज्ञाने दर्शने पानयोरेकतरस्मिन् लपयुक्ताः । सर्वस्य केवलिनो युगपत् तो न स्त उपयोगी ॥ २९२ ।। सुरगणसुखं समस्तं सद्विापिंडितं अनन्तगुणं । नैव प्राप्नोति मुक्तिमुखं अनन्तैर्गवगैः ।। २९३ ।। नवास्ति मनुष्याणां सत् सौख्यं नैव च सर्वदेवानां । यत् सिद्धानां सौख्यमध्यावारियमुपगतानाम् | सिद्धस्य सुखराशिः सर्वातापिण्डितो यदि भवेत् । अनन्तगुणवर्गभक्तः सर्वाकाशे न मायात् ।। २९५ ॥ यथा नाम कचिम्लेकलोद नगरगुणान् बहु विधान विजानानः । न शकोति परिकथयितुं तत्रासल्यामुपमायाम् ।। २९६ ॥ इति सिद्धानां सौख्यमनुपमं नास्ति दीप अनुक्रम [२९०] ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------- मूलं [२९७]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||२९७|| प्रकीर्णकदार कदासेसेणित्तो सारिक्समिणं सुणा धुच्छ ॥२९७॥ १२२५ ॥ जह सबकामगुणियं पुरिसो भोनूण भोयणं कोई सिद्धानां राणाकुहाविमुको अच्छिन जहा अमियतित्तो ।। २९८॥१२२६ ॥श्य सपकालतित्ता अउलं निषाणमुषगया सौख्यम् बन्दस्तासिया । सासयमचाचाहं चिटुंति सही मुहं पत्ता ॥२९९ ।। १२२७ ॥ सिद्धत्ति य बुद्धति य पारगयत्ति य४॥ ॥९५ परंपरगयसि । उम्मुफकम्मकषया अजरा अमरा असंगा य ॥ ३०० ॥ १२२८ । निच्छिमसबदुक्खा जाइज18 रामरणबंधणविमुका । सासपमहापाई अणुहवंति सुहं सया कालं ॥३०१॥ १२२९ ।। सुरगणइडिसमग्गा सध-12 द्वापिंडिपं अणंतगुणा । नर्षि पावर जिणइहिं तिहिंवि वग्गषगहि ॥ ३०२ ॥ १५३० ॥ भवणवावाणमंतरजोइसचासी विमाणवासी य । सविहीपरियरिया अरहंते वंदया हुंति ।। ३०३ ॥ १२३१ ॥ भवणवइयाणमंतरजोइसवासी विमाणघासी य । इसिवालियमयमहिया करिति महिमं जिणवराणं ॥ ३०४ ॥ १२३२॥ तस्यौपम्यं । किंचिद्विशेषेणातः सादृश्यमिदं शृणुत वक्ष्ये ।। २९७ ॥ यथा सर्वकामगुणितं भोजनं मुक्या कश्चित् पुरुषः । तृषा क्षुधा विमुक्त आसीत यथाऽमृततृप्तः ।। २९८ ॥ इति (एवं ) सर्वकालतमाः अतुल्यं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः । शाश्वतमव्यावाधं सुखिनः | 8.मुखं प्राप्तासिन्ति ।। २९९ ।। सिद्ध इति च बुद्ध इति च पारगत इति व परंपरागत इति । भन्मुक्तकर्मरूपया अजरा अमरा असं-IN गाश्च ॥ ३०॥ न्युच्छिन्नसर्वदुःखा जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः । शाश्वतमव्यायाधत्वमनुभवन्ति सदाकालम् ॥ ३०१ ॥ सुरग- गर्द्धिः समपा सद्विापिंडिता अनन्तगुणा । नैव प्राप्नोति जिनद्धि अनन्तैर्वर्गवगैरपि ।। ३०२ ।। भवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्कवासिनो ॥१५॥ ४. विमानवासिनश्च । सर्वद्धिपरिवृता जिनानां बंदुका भवन्ति (बन्दनाय यांति) ॥ ३०३ ।। भवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्कवासिनो विमा-1 दीप अनुक्रम [२९७] JAHEbastihanimanav अथ जिनऋद्धि दर्शयित्वा, पश्चात् उपसंहारः क्रियते ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (३२) “देवेन्द्रस्तव” - प्रकीर्णकसूत्र-९ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [३०५]------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [३२], प्रकीर्णकसूत्र - [०९] "देवेन्द्रस्तव" मूलं एवं संस्कृतछाया इसिवालियस्स भाई सुरवस्थयकारयस्स वीरस्स। जेहिं सयाधुवंता सबे इंदा पवरकित्ती ॥३०५॥१२३३॥ इसिवा० तेसिं सुरासुरगुरू सिद्धा सिद्धिं उवणमंतु ॥ ३०६ ॥१२३४॥ भोमेजवणयराणं जोइसियाणं विमाणवासीणं । देवनिकाया णं (णंदउ) थवो सहस्सं [समत्तो] अपरिसेसो ॥ ३०७॥१२३५॥ देविंदत्ययपइण्णं सस्मत्तं ॥९॥ प्रत सूत्रांक ||३०५|| दीप अनुक्रम नवासिनश्च । ऋषिपालितमतमहिताः कुर्वन्ति महिमानं जिनेन्द्राणाम् ॥ ३०४ ॥ ऋषिपालिताय भद्रं वीरस्य सुरखरस्तवकारकाय । ४ येन सदा सुतिकारकाः सर्वे इन्द्राः परिकीर्तिताः (प्रवरकीर्तिताः) ॥ ३०५ ॥ कपिपालिताव भद्रं वीरस्य मुरवरस्य स्तवकारकाय । तेषां सुरासुराणां गुरवः सिद्धाः सिद्धिमुपनयन्तु ॥३०६।। भौमेयन्यन्तराणां ज्योतिष्काणां विमानबासिना । देवनिकायानां स्तवः [सहसा] अपरिशेषः समाप्तः ।। ३०७ ॥ इति देवेन्द्रस्तवः॥ [३०५] JAMERustinianimasana मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ३२) "देवेन्द्रस्तव" परिसमाप्त: । ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 32 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “देवेन्द्रस्तव-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: ' “देवेन्द्रस्तव” मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~45~