Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 8
________________ सम्पादकीय पाठकवृन्द ! पूज्य आचार्यों ने कहा है- 'धर्मार्थhanting deभयं कलासु च । करोति कोतिं प्रीति व साघुकाव्यनिषेवणम् ॥' अर्थात् — निर्दोष, गुणालंकारशाली व सरस काव्यशास्त्रों का अव्ययन, श्रवण व मनन आदि, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थो का एवं संगीत आदि ६४ कलाओं का विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न करता है एवं कीर्ति व प्रीति उत्पन्न करता है ।' उक्त प्रवचन से प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' भी समूचे भारतीय संस्कृत साहित्य में उच्चकोटि का, निर्दोष, गुणालंकारशाली, सरस, अनोखा एवं बेजोड़ महाकाव्य है, अतः इसके अध्ययन आदि से भी निस्सन्देह उक्त प्रयोजन सिद्ध होता है, परन्तु अभी तक किसी विशिष्ट विद्वान ने श्रीमत्सोमदेवसूरि के समूचे 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की अनुसन्धानपूर्ण भाषाटोका डीं दी, अतः भीकी के लिए हमने ८-१० वर्ष पर्यन्त कठोर साधना करके इसकी 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषा टीका तैयार की और १९६० ई० में इसका पूर्वखण्ड प्रकाशित किया । तत्पश्चात् प्रस्तुत उत्तर खण्ड भी प्रकाशित किया 1 संशोधन एवं उसमें उपयोगी व महत्वपूर्ण प्रतियाँ बाठ आश्वासवाला एवं आठ हजार श्लोक परिमाणवाला 'यशस्तिलक नम्पू' महाकाव्य निर्णय सागर मुद्रण यन्त्रालय बम्बई से सन् १९१६ में दो खण्डों में प्रकाशित हुआ था, उनमें से प्रथमखण्ड ( ३ आवास पर्यन्त ) मूल व संस्कृत टीका सहित मुद्रित हुआ हैं और दूसरा खण्ड, जो कि ४ आवास से लेकर ८ श्वास पर्यन्त है, ४१ आवास तक सटीक और बाकी का निष्क ( मूलमात्र ) प्रकाशित हुआ है परन्तु दूसरे खण्ड में प्रतिपेज में अनेक स्थलों पर विशेष अशुद्धियां हैं, एवं पहले खण्ड में यद्यपि उतनी अशुfat नहीं है तथापि कतिपय स्थानों में अशुद्धियाँ हैं । दूसरा खण्ड तो मूलरूप में भी कई जगह त्रुटित प्रका शित हुआ है । अतः हम इसके अनुसन्धान हेतु जयपुर, नागौर, सीकर, अजमेर व बड़नगर शादि स्थानों पर पहुँचे और वहाँ के शास्त्र भण्डारों से प्रस्तुत ग्रन्थ को ६० लि० मूल व सटिप्पण तथा सटीक प्रतियां निकलवाई और उक्त स्थानों पर महीनों ठहरकर संशोधन आदि कार्य सम्पन्न किया। अभिप्राय यह है कि इस महाक्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थ की उलझी हुई गुत्थियों के सुलझाने में हमें इसकी महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका के सिवाय उक्त स्थानों के शास्त्र भण्डारों को ह० लि० मूल व सटिप्पण प्रतियों का विशेष आधार मिला। इसके सिवाय हमें नागौर के सरस्वती भवन में श्रीदेव विरचित 'यशस्तिलक पञ्जिका' भी मिली, जिसमें इसके कई हजार अप्रयुक्त व क्लिष्टतम शब्द, जो कि वर्तमान कोशग्रन्थों में नहीं हैं, उनका अर्थ उल्लिखित है, हमने वहाँ पर ठहरकर उसके शब्दनिघण्टु ( कोश) का संकलन किया, विद्वानों की जानकारी के लिए हमने उसे परिशिष्ट संख्या २ में का त्यों प्रकाशित कर दिया है। इससे भी इमें भाषाटीका करने में विशेष सहायता मिली एवं भाषाटीका को पल्लवित करने में 'नीतिवाक्यामृत' (हमारी भाषाटीका ), आदि-पुराण, सर्वदर्शन संग्रह, पातञ्जल योगदर्शन, साहित्यदर्पण, आप्तमीमांसा, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थं श्लोकवातिक व रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि अनेक ग्रन्थों की सहायता मिली ।

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