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राजमाता चन्द्रमति और राजा यशोधर ने आटे के मर्ग की बलि का संकल्प करके जो पाप किया, उसके फलस्वरूप तीन जन्मों तक उन्हें पशु योनि में उत्पन्न होना पड़ा। पहली योनि में यशोधर मोर को योनि में पैदा हुआ और चन्द्रमति कुत्ता बनी। दूसरे जन्म में दोनों उज्जयिनी को शिप्रा नदो में मछली के रूप में उत्पन्न हुए। तीसरे जन्म में वे दो मुर्गे हुए, जिन्हें पकड़ कर एक जल्लाद उज्जयिनी के कामदेव के मन्दिर के उद्यान में होने वाले बसन्तोत्सव में कुक्कुट-युद्ध का तमाशा दिखाने के लिये ले गया। वहाँ उसे आचार्य 'सुदत्त' के दर्शन हुए। ये पहले कलिङ्ग देश के राजा थे, पर अपना विशाल राज्य छोड़कर मुनिव्रत में दीक्षित हुए । उनका उपदेश सुनकर दोनों मुर्गों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। अगले जन्म में दे दोनों यशोमति राजा की रानी कुसुमावलि के उदर से भाई बहिन के रूप में उत्पन्न हुए और उनका नाम नामशः 'अभयरुचि' और 'अभयमनि' रक्खा गया। एक बार राजा यशोमति आचार्य सुदत्त के दर्शन करने गया और अपने पूर्वजों की परलोक-गति के बारे में प्रश्न किया।
___ आचार्य ने कहा-जुम्हारे पितामह पशोचं स्वर्ग में इन्द्रपद भोग रहे हैं । तुम्हारी माता अमृतमति नरक में है और यशोवर और चन्द्रमति ने इस प्रकार तीन बार संसार का भ्रमण किया है । इसके बाद उन्होंने यशोधर और चन्द्रमति के संसार-भ्रमण को कहानी भी सुनाई। उस वृत्तान्त को सुनकर संसार के स्वरूप का कान हो गया और यह डर हुआ कि कहीं हम बड़े होकर फिर इस भवचक में न फंस जाय । अतएव वाल्या. वस्था में ही दोनों ने आचार्य सुदत्त के रांच में दीक्षा ले ली।
इतना कहकर 'अभयरुचि' ने राजा मारिदत्त से कहा-हे राजन् । हम वे ही भाई बहिन हैं । हमारे आचार्य सुदत्त भी नगर से बाहर ठहरे हैं। उनके आदेश से हम भिक्षा के लिये निकले थे कि तुम्हारे चाण्डाल हमें यहाँ पकड़ लाए।
(भव-भ्रमणवर्णन नामक पांचवें आश्वास की कथा यहाँ तक समाप्त हुई )।
वस्तुतः 'यशस्तिलकचम्पू' का कथाभाग यही समाप्त हो जाता है। आश्वास छह, सात, आठ इन सीनों का नाम 'उपासकाध्ययन' हैं, जिनमें उपासक या गृहस्थों के लिये छोटे बड़े छियालिस कल्प या अध्यायों में गृहस्थोपयोगी धर्मों का उपदेश आचार्य सुदत्त के मुख से कराया गया है। इनमें जैनधर्म का बहुत ही विशद निरूपण हुआ है। छठे आश्वास में भिन्न-भिन्न नाम के २१ कल्प हैं। सातवें आश्वास में बाइसवे कल्प से तेतीसवें कल्प तक मद्यप्रवृत्तिदोष, मद्यनिवृत्तिगुण, स्तेय, हिंसा, लोभ-आदि के दुष्परिणामों को बताने के लिये छोटे-छोटे उपाख्यान हैं। ऐसे ही आठवें आश्वास में चौतीसर्वे कल्प से छियालीस कल्प तक उपाख्यानों का सिलसिला है। अन्त में इस सूचना के साथ अन्य समाप्त होता है कि आचार्य सुदन का उपदेश सुनकर राजा मारिदत्त और उसकी प्रजाएँ प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रद्धा से धर्म का पालन किया, जिसके फलस्वरूप सारा यौधेय देश सुख एवं शान्ति से भर गया।
___इसप्रकार सोमदेव का रचा हुआ यह विशिष्ट ग्रन्थ जैनधर्मावलम्वियों के लिये कल्पवृक्ष के समान है । अन्य पाठक भो जहाँ एक और इससे जैनधर्म और दर्शन का परिचय प्राप्त कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति के विविध अङ्गों का भी सविशेष परिचय प्राप्त कर सकते हैं। प्रायः प्रत्येक आश्वास में इस प्रकार की सामग्री विद्यमान है। उदाहरण के लिए तीसरे आश्वास में प्राचीन भारतीय राजाओं के आमोदप्रमोद का एवं अनोखी वेजोड़ राजनीति का सविस्तर उल्लेख है। वाण ने जैसे 'कादम्बरी' में हिमगृह का व्योरे. वार वर्णन किया है वेसा ही वर्णन 'यशस्तिलक' में भी है । सोमदेव के मन पर कादम्बरी की गहरी छाप पड़ो