Book Title: Yashstilak Champoo Uttara Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 4
________________ नाम के एक महात्मा राजधानी के बाहर ठहरे हा थे। उनके साथ दो शिष्य थे-एक 'अभयसचि' नाम का राजकुमार और दूसरी उसकी बहिन 'अभयमति' । दोनों ने छोटी आयु में हो दीक्षा ले ली थी। वे दोनों दोपहर की भिक्षा के लिये निकले हुए थे कि चाण्डाल पकड़कर देवी के मन्दिर में राजा के पास ले गया। राजा ने पहले तो उनकी बलि के लिये तलवार निकाली पर उनके तपः प्रभाव से उसके विचार सौम्य हो गए और उसने उनका परिचय पूछा । इस पर राजकुमार ने कहना शुरु किया। ( कथावतार नामक प्रथम आश्वास समाप्त ) । इसी 'मरतक्षेत्र में 'अवन्ति' नाम का जनपद है । उसको राजधानी "उज्जयिनी' शिप्रा नदी के तट पर स्थित है। वहीं 'यशोध' नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी 'पन्नमति' थी। उनके 'यशोवर' नामक पुत्र हुआ। एक वार अपने शिर पर सफेद बाल देखकर राजा को वैराज्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने पुत्र यशोधर को राज्य सौंपकर संन्यास ले लिया। मन्त्रियों ने यशोचर का राज्याभिषेक किया। उसके लिए शिप्रा के तट पर एक विशाल मण्डप बनवाया गया । नये राजा के लिये 'उदयगिरि' नामक एक सुन्दर तरुण हाथी' और 'विजयनैनतेय' नामक प्रइव लाया गया। यशोधर का विवाह 'अमृतमति' नाम की रानी से हुआ। राजा ने रानी, अश्व और हाथी का पट्टबन्ध धूमधाम से किया। (पट्टबन्धोत्सव नामक द्वितीय आश्वास समाप्त )। अपने नये राज्य में राजा का समय अनेक आमोद-प्रमोदों व दिग्विजयादि के द्वारा सुख से बीतने लगा! ( राजलक्ष्मीविनोदन नामक तृतीय आश्वास समाप्त )। एक दिन राज-कार्य शीघ्र समाप्त करके वह रानी अमृतमति के महल में गया। वहाँ उसके साथ विलास करने के बाद जब वह लेटा हुआ था तब रानो उसे सोया जानकर धीरे से पलंग से उतरों और वहां गई, जहाँ गजशाला में एक महावत सो रहा था। राजा भी चुपके से पीछे गया। रानी ने सोते हुए महावत को जगाया और उसके साथ विलास किया। राजा यह देखकर क्रोध से उन्मत्त होगया। उसने चाहा कि वहीं तलवार से दोनों का काम तमाम कर दे, पर कुछ सोचकर रुक गया और उलटे पैर लौट आया, पर उसका हृदय सुना हो गया और उसके मन में संसार की असारता के विचार आने लगे। नियमानुसार वह राजसभा में गया। वहां उसकी माता चन्द्रगति ने उसके उदास होने का कारण पूछा तो उसने कहा कि 'मैंने स्वप्न देखा है कि राजपाट अपने राजकुमार 'यशोमति' को देकर मैं वन में चला गया हूँ; तो जैसा मेरे पिता ने किया मैं गो उसी कुलरोति को पूरा करना चाहता हूँ' मह सुनकर उसकी मां चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी को लि चढ़ाकर स्वप्न को शान्ति करने का उपाय बताया। मां का यह प्रस्ताव सुनकर राजा ने कहा कि मैं पहिसा नहीं करूंगा। तब माँ ने कहा कि हम आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि चढ़ायेंगे और उसी का प्रसाद ग्रहण करेंगे। राजा में यह बात मान लो और साथ ही अपने पुत्र 'यशोमति' के राज्याभिषेक की आज्ञा दी ।। यह समाचार अब रानी ने सुना तो वह भीतर से प्रसन्न हुई पर ऊपरी दिखावा करती हुई बोली-'महाराज ! मुझ पर कृपा करके मुझे भी अपने साथ वन में ले चलें ।' कुलटा रानी की इस ढिठाई से राजा के मन को गहरी चोट लगी, पर उसने मन्दिर में जाकर आटे के मर्गे की बलि चढ़ाई। इससे उसकी मां प्रसन्न हुई, किन्तु असतो रानी को भय हुना कि कहीं राजा का वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने आटे के मुग में विष मिला दिया । उसके खाने से चन्द्रमति और यशोधर दोनों तुरन्त मर गये । (अमृतमति महादेवी-दुविलसन नामफ चतुर्थ आश्वास समाप्त }।

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