Book Title: Yashstilak Champoo Purva Khand
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 16
________________ अर्थात् - 'यशोवर' नामक राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार राजनीति, धर्म, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की सामग्री प्रस्तुत की गई छ । 'सोमदेय' का लखा हुआ दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नानृत' है, उसमें कोटिल्य के अशास्त्र की आधार मानकर सामदेव न राजशास्त्र विजय को सूत्रों में निबद्ध किया है। संस्कृत वाङ्मय में 'नीतिवाक्यामृत' का भी विशिष्ट स्थान है और जीवन का व्यवहारिक निपुणता से ओतप्रोत होने के कारण वह ग्रन्थ भा सर्वथा प्रशंसनीय है । उस पर भी श्री सुन्दरलाल जी ने हिन्दी टीका लिखी है । इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि 'सोमदेव' की प्रज्ञा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि की थी और संस्कृत भाषा पर उनका असामान्य अधिकार था । साधु I 'सोमदेव' ने अपने विषय में जो कुछ उल्लेख किया है, उसके अनुसार वे देवसंघ 'नेमिदेव' के शिष्य थे । वे राष्ट्रकूट सम्राट् 'कृष्ण' तृतीय (२६-६६८० ई०) के राज्यकाल में हुए । सोमदेव के संरक्षक 'अरिकेसरी' नामक चालुक्य राजा के पुत्र 'वाद्यराज' या 'वदिग' नामक राकुमार थे । यह वंश राष्ट्रकूटों के अधीन सामन्त पदवीधारी था । 'सोमदेव' ने अपना ग्रन्थ 'गङ्गधारा' नामक स्थान में रहते हुए लिखा । धारवाड़ कर्नाटक महाराज और वर्तमान 'हैदराबाद' प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का जखण्ड राज्य था । लगभग आठवीं शती के मध्य से लेकर दशम शती के अन्त तक महाप्रतापी राष्ट्रकूट सम्राट् न केवल भारतवर्ष में बल्कि पश्चिम के अरब साम्राज्य में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे । अरबों के साथ उन्होंने विशेष मैत्री का व्यवहार रखा और उन्हें अपने यहाँ व्यापार की सुविधा ''बल्लभराज' प्रसिद्ध था, जिसका रूप अरब लेखकों में बल्हरा पाया जाता है। राष्ट्रकूटों के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन की चौमुखी उन्नति हुई। चम्पू ग्रन्थों की रचना हुई। पहला महाकवि इन्द्र तृतीय (६१४-६१६ ई०) के राजपण्डित हुई है और उससे राष्ट्रकूट संस्कृति का सुन्दर । इस वंश के राजाओं का विरुद उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर दो विक्रमकृत 'नल वम्पू' है। 'त्रिविक्रम' राष्ट्रकूट सम्राट् इस चम्पूमन्य के संस्कृत कोर्स इलेप प्रधान शब्दों से भरो परिचय प्राप्त होता है । त्रिविक्रम के पचास वर्ष बाद 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलक चम्पू' की रचना की। उनका भरसक प्रयत्न यह था कि अपने युग का सच्चा चित्र अपने गद्यपद्यमय ग्रन्थ में उतार दें। निःसन्देह इस उद्देश्य में उनको पूरी सफलता मिली। 'सोमदेव जैन साधु ये और उन्होंने 'यसांखळक' में जैनधर्म का व्याख्या और प्रभावना को ही सबसे ऊँचा स्थान दिया है । उस समय कापालिक, कालामुख, शेव व चार्वाक आदि जो विभिन्न सम्प्रदाय लोक में प्रचलित थे उनको शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतार कर तुलनात्मक दृष्टि से 'सोमदेव' ने उनका अच्छा परिचय दिया है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ भारत के मध्यकालन सांस्कृतिक इतिहास का उडता हुआ स्रोत है जिसकी बहुमूल्य सामग्री का उपयोग भविष्य के इतिहास प्रन्थों में किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में श्रीकृष्णकान्त हन्दीकी का कार्य, जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है, महत्त्वपूर्ण है । किन्तु हमारी सम्मति में अभी उस कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे 'सोमदेव' की श्लेषमयी शैली में भरी हुई समस्त सामग्री का दोहन किया जा सके । भविष्य के किसी अनुसंधान प्रेमी विद्वान् को यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए । 'यशस्तिलकचम्पू' की कथा कुछ उलझी हुई है । घाण की कादम्बरी के पात्रों की तरह इसके पात्र भी कई जन्मों में हमारे सामने आते हैं। बीच-बीच में दर्शन बहुत लम्बे हैं जिनमें कथा का सूत्र खो जाता है। इससे बचने के लिये संक्षिप्त कथासूत्र का यहाँ उल्लेख किया जाता है ।

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