Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि प्राप। अपनाये विधि फल पुण्य पाप ।। निज को पर को करता पिछान। पर में अनिष्टता इष्ट ठान ।।९।। पाकुलित भयो अज्ञान धारि। ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि।। तन-परिणति में आपो चितार। कबहूँ न अनुभवो स्वपदसार ।।१०।। तुमको बिन जाने जो कलेश। पाये सो तुम जानत जिनेश।। पशु, नारक, नर, सुरगति मँझार। भव धर धर मर्यो अनंत बार ।।११।। प्रब काललब्धि बलतें दयाल। तुम दर्शन पाय भयो खुशाल।। मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद।। चाख्यो स्वातम-रस दुःख-निकंद ।।१२।। तातें अब ऐसी करहु नाथ। बिछुरै न कभी तुव चरण साथ।। तुम गुणगण को नहिं छेव देव। जग तारन को तुव विरद एव ।।१३।। प्रातम के अहित विषय-कषाय। इनमें मेरी परिणति न जाय ।। मैं रहूं आप में पाप लीन। सो करो होउँ ज्यों निजाधीन ।।१४।। मेरे न चाह कछु और ईश।। रत्नत्रय निधि दीजे मुनीश ।। मुझ कारज के कारण सु आप। शिव करहु हरहु मम मोहताप ।।१५।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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