________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates लोक निर्जरा संवरमय है प्रात्मा, पूर्व कर्म झड़ जाय। निज स्वरूप को पायकर, लोक शिखर जब थाय।। लोक स्वरूप विचारिकें, प्रातम रूप निहार। परमारथ व्यवहार गुणि, मिथ्याभाव निवारि।। बोधिदुर्लभ बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहि। भव में प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं।। धर्म दर्शज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि / दयाक्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि।। निर्जरा ज्ञानस्वभावी आत्मा ही संवर (धर्म) मय है। उसके प्राश्रय से ही पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश होता है और यह आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करता है। लोक लोक (षट् द्रव्य) का स्वरूप विचार करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिये। निश्चय और व्यवहार को अच्छी तरह जानकर मिथ्यात्व भावों को दूर करना चाहिये। बोधिदुर्लभ ज्ञान आत्मा का स्वभाव है, अतः वह निश्चय से दुर्लभ नहीं है। संसार में आत्मज्ञान को दुर्लभ तो व्यवहार नय से कहा गया है। धर्म आत्मा का स्वभाव ज्ञान-दर्शनमय है। दया, क्षमा प्रादि दशधर्म और रत्नत्रय सब इसमें ही गर्भित हो जाते हैं। प्रश्न - 1. निम्नलिखित भावनाओं संबंधी छंद अर्थसहित लिखिये : अनित्य, एकत्व, संवर, बोधिदुर्लभ। 2. पं. जयचंदजी छाबड़ा के व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये। 32 Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com