Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates एकत्व वैराग्योत्पत्तिकाल में बारह भावनाओं का चिंतवन करने वाले ज्ञानी आत्मा इस प्रकार विचार करते हैं :अनित्य द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो सर्व जगत् स्थिर है, पर पर्याय दृष्टि से कोई भी स्थिर नहीं है, अतः पर्यायार्थिक नय को गौण करके द्रव्य-दृष्टि से एक आत्मानुभूति ही करने योग्य कार्य है। प्रशरण इस विश्व में दो ही शरण हैं। निश्चय से तो निज शुद्धात्मा ही शरण है और व्यवहार नय से पंचपरमेष्ठी । पर मोह के कारण यह जीव अन्य पदार्थों को शरण मानता है। संसार निश्चय से पर-पदार्थों के प्रति मोह-राग-द्वेष भाव ही संसार है। इसी कारण जीव चारों गतियों में दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है। निश्चय से तो आत्मा एक ज्ञानस्वभावी ही है। कर्म के निमित्त की अपेक्षा कथन करने से अनेक विकल्पमय भी उसे कहा है। इन विकल्पों के नाश से ही मुक्ति प्राप्त होती है। अन्यत्व प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में ही विकास कर रहा है, कोई किसी का कर्ता-हर्ता नहीं है। जब जीव ऐसा चिंतवन करता है तो फिर पर से ममत्व नहीं होता है। अशुचि यह अपनी प्रात्मा तो निर्मल है पर यह शरीर महान् अपवित्र है, अतः हे भव्य जीवो! अपने स्वभाव को पहिचान कर इस अपावन देह से नेह छोड़ो। निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा केवल ज्ञानमय है। विभावभाव रूप परिणाम तो प्रास्त्रवभाव हैं, जो कि नाश करने योग्य हैं। संवर निश्चय से आत्मस्वरूप में लीन हो जाना ही संवर है। उसका कथन समिति, गुप्ति और संयम रूप से किया जाता हैं, जिसे धारण करने से पापों का नाश होता है। प्रास्त्रव ३१ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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