Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates । इसी प्रकार ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि ही निश्चय से गुरु-उपासना है और गुरु का सच्चा स्वरूप समझकर उनकी उपासना करना ही व्यवहार-गुरुउपासना है। तुम्हें पहिले बताया जा चुका है कि अरहंत और सिद्ध भगवान देव कहलाते हैं और प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु गुरु कहलाते हैं। ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि ही निश्चय से स्वाध्याय है तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये तत्त्व का निरूपण करने वाले शास्त्रों का अध्ययन, मनन करना व्यवहार-स्वाध्याय है। श्रोता - यह तो तीन हुए। प्रवचनकार - सुनो! ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि ही निश्चय से संयम है और उसके साथ होने वाले भूमिकानुसार हिंसादि से विरति एवं इन्द्रिय-निग्रह व्यवहार-संयम है। ज्ञानी श्रावक के योग्य आंशिक शुद्धि अर्थात् शुभाशुभ इच्छाओं का निरोध ( उत्पन्न नहीं होना) निश्चय-तप है तथा उसके साथ होने वाले अनशनादि संबंधी शुभभाव व्यवहार-तप है। ज्ञानी श्रावक के योग्य प्रांशिक शुद्धि, वह निश्चय से अपने को शुद्धता का दान है तथा स्व और पर के अनुग्रह के लिये धनादि देना व्यवहार-दान है। वह चार प्रकार का होता है : १. पाहारदान २. ज्ञानदान ३. औषधिदान ४. अभयदान श्रोता - निश्चय और व्यवहार आवश्यक में क्या अंतर है ? प्रवचनकार - निश्चय आवश्यक तो शुद्ध धर्म-परिणति है, अतः बंध के प्रभाव का कारण है तथा व्यवहार आवश्यक पुण्य बंध का कारण है। सच्चे आवश्यक ज्ञानी जीव के ही होते हैं। पर देवपूजनादि करने का भाव अज्ञानी के भी होता हैं तथा मंद कषाय और शुभ भावानुसार पुण्य बंध भी होता है, पर वे सच्चे धर्म नहीं कहे जा सकते। श्रोता- यदि आप ऐसा कहोगें तो अज्ञानी जीव देवपूजनादि आवश्यक कर्मों को छोड़ देंगे। प्रवचनकार - भाई! उपदेश तो ऊँचा चढ़ने को दिया जाता है। अतः देवपूजनादि के शुभ भाव छोड़कर यदि अशुभ भाव में जावेंगे तो पाप बंध करेंगे। अतः देवपूजनादि छोड़ना ठीक नहीं है। प्रश्न - १. छह आवश्यकों के नाम लिखकर उनकी परिभाषायें दीजिये। १७ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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