Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जब आत्मा स्वयं मोह भाव के द्वारा प्राकुलता करता है तब अनुकूलता, प्रतिकूलता रूप संयोग प्राप्त होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । यह साता वेदनीय और असाता वेदनीय के भेद से दो प्रकार का होता है। जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब कर्म का उदय निमित्त हो उसे आयु कर्म कहते हैं। यह भी नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु के भेद से चार प्रकार का है । तथा जिस शरीर में जीव हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे नाम कर्म कहते हैं । यह शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म के भेद से दो प्रकार का होता है। वैसे इसकी प्रकृतियाँ ९३ हैं । और जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल में पैदा होने में जिस कर्म का उदय निमित्त हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं । यह भी उच्चगोत्र और नीच गोत्र, इस प्रकार दो भेद वाला है। चामुण्डराय - तो बस, कर्मों के आठ ही प्रकार हैं ? आचार्य नेमिचन्द्र - इन आठ भेदों में भी प्रभेद हैं, जिन्हें प्रकृतियाँ कहते हैं और वे १४८ होती हैं। और भी कई प्रकार के भेदों द्वारा इन्हें समझा जा सकता हैं, अभी इतना ही पर्याप्त है । यदि विस्तार से जानने की इच्छा हो तो गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये । प्रश्न - १. कर्म कितने प्रकार के होते हैं ? नाम सहित गिनाइये। २. द्रव्य कर्म और भाव कर्म में क्या अंतर है ? ३. क्या कर्म आत्मा को जबर्दस्ती विकार कराते हैं ? ४. ज्ञानावरणी, मोहनीय एवं आयु कर्म की परिभाषाएँ लिखिये। ५. सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र का संक्षिप्त परिचय दीजिये । २१ Please inform us of any errors on [email protected]

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