Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रवचनकार - भाई! पुण्य और पाप , आस्त्रव-बंध के ही अवान्तर भेद हैं। शुभ राग से पुण्य का आस्रव और बंध होता है और अशुभ राग, द्वेष और मोह से पाप का आस्रव और बंध होता है। शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार का राग अर्थात् पुण्य और पाप दोनों ही छोड़ने योग्य हैं, क्योकि वे प्रास्त्रव और बंध तत्त्व हैं। पुण्य-पाप के विकारी भाव (प्रास्त्रव) को प्रात्मा के शुद्ध (वीतरागी) भावों से रोकना सो भाव-संवर है और तदनुसार नये कर्मों का स्वयं आना रुक जाना द्रव्य-संवर है। इसी प्रकार ज्ञानानन्द-स्वभावी आत्मा के लक्ष्य के बल से स्वरूपस्थिरता की वृद्धि द्वारा आंशिक शुद्धि की वृद्धि और अशुद्ध (शुभाशुभ ) अवस्था का आंशिक नाश करना सो भाव-निर्जरा है और उसका निमित्त पाकर जड़ कर्म का अंशतः खिर जाना सो द्रव्य-निर्जरा है। प्रश्नकर्ता - और मोक्ष ? प्रवचनकार - अशुद्ध दशा का सर्वथा सम्पूर्ण नाश होकर आत्मा की पूर्ण निर्मल पवित्र दशा का प्रकट होना भाव-मोक्ष है और निमित्त कारण द्रव्य-कर्म का सर्वथा नाश (प्रभाव) होना सो द्रव्य-मोक्ष है। उक्त सातों तत्त्वों को भली भाँति जानकर एवं समस्त परतत्त्वों पर से दृष्टि हटाकर अपने आत्मतत्त्व पर दृष्टि ले जाना ही सच्चा सुख प्राप्त करने का सच्चा उपाय है। प्रश्न - १. तत्त्व किसे कहते है ? वे कितने प्रकार के हैं ? २. 'प्रयोजनभूत' शब्द का क्या आशय है ? ३. पुण्य और पाप का अन्तर्भाव किन तत्त्वों में होता है और कैसे ? स्पष्ट कीजिये। ४. हेय और उपादेय तत्त्वों को बताइये। ५. द्रव्य-संवर, भाव-निर्जरा, भाव-मोक्ष, द्रव्यास्त्रव तथा भाव-बंध को स्पष्ट कीजिये। ६. आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व पर प्रकाश डालिये। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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