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१२० ... ... ... . . .: विपाकभुते अहम्मप्पलोई, अहम्मजीवी, अहम्मप्पलज्जणे, अहम्मसीलसमुदायारे, अहम्मेणं चेच वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ,* 'हण, छिंद, भिंद, विकत्तए, लोहियपाणी, चंडे, रुदे, खुद्दे, असमिक्खियकारी, साहम्सिए, उकंचण-वंचण-माई, नियडी, कूडमाई साइसंपओगबहुले, दुप्परिचए, दुचरिए, दुरणुणए, दुस्सीले, दुचए, इति । तत्र-अधर्मानुगतः-अधर्म-श्रुतचारित्राभावमनुगतः, अधर्मसेवी-अधर्म सेवितुं शीलं यस्य स तथा । तत्र हेतुं प्रदर्शयन् विशेषणान्याह-अधर्मेष्टः-अधर्म एवेष्टो यस्य स तथा, अत एव-अधर्माख्यायी अधर्मोपदेशकः, अधर्मानुरागी अधर्मानुरागवान , अधर्मप्रलोकी अधर्ममुपादेयतया प्रलोकयति-प्रेक्षते यः सोऽधर्मप्रलोकी। अधर्मजीवी-अधर्मेणैव जीवनशीलः, अधर्ममरञ्जनः अधर्मे 'हण' इत्यारभ्य 'दुष्पडियाणंदे' इत्यन्तानि विशेषणानि 'दशाश्रुतस्कन्धे' वर्तन्ते । अहम्मसेवी, अहम्मिट्टे' इत्यादि पदों का यहां पर ग्रहण हुआ है, इनका अर्थ इस प्रकार है-यह 'अहम्माणुगए' अधर्मानुगत था-श्रुतचारित्ररूप धर्म की पालना से रिक्त था, यह 'अहस्मसेवी' अधर्मसेवीअधर्म का ही उपासक था, इसमें कारण यह था कि यह 'अहम्मिट्टे' अधर्मेष्ट था-अधर्म ही इसे अभीष्ट था। यह 'अहम्मक्खाई' अधर्माख्यायी-सदा अधर्म की ही प्ररूपणा करता था। 'अहम्माणुराई, अधर्मानुरागी-अधर्म में ही यह सदा अनुरागी था, 'अहम्मप्पलोई ' अधर्मप्रलोकी यह इसलिये था कि यह अधर्म को ही उपादेयरूप से मानता था, 'अहम्मजीवी' अधर्मजीवी-अधर्म ही इसका जीवन था, अतः 'अहम्मपलज्जणे' अधर्मप्ररञ्जन-अधर्म में ही मस्त रहता था, यह 'अहम्मसीलसमुदायारे' अधर्मशीलसमुदाचार-सुन्दर आचार और विचारों से सदा रहित था, अहम्मिढे ' त्या पहनु मा स्थणे अडए थयु छ, तेन! म मा प्रमाणे छ ते 'अहम्माणुगए' मानुगत-धर्म मार्ग यासना२ श्रुतयारित्र३५ ५ पासनथी १२ हेत; ते 'अहम्मसेवी ' मयसेवी-अधमन सेवन २ना२, भने अधर्मना
पास डतो, तमा १२ को तु मे 'अहम्मि?' अधष्ट हतो, मे.ले. तेने मधर्म हा तो. ते 'अहम्मक्खाई' अधाभ्यायी-अभी पायी
मेशा अपनी प्र३५९ ४२तो तो, 'अहम्माणुराई' अधर्मानुसी-अभी ते या प्रीतिपणे हतो, 'अहम्मप्पलोई' मधमप्रसादी-ते अधर्म ने पाय भानतो ता, 'अहम्मजीवी' अभवी-मभ - मे तेनुं वन तु, तेथी 'अहम्मप्पलज्जणे.' अभप्रश्न-अभभा: प्रसन्न रहेना२-अधभा भरत
२ हतो ते अहम्मसीलसमुदायारे मध भुयार-मेटकर