Book Title: Vipaksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 786
________________ ४६ · विपाकश्रुते 'अंतिए' अन्तिके समीपे 'मुंडा जाव पव्ययंति' मुण्डा भूत्वा-अगारात् अनगारितां प्रव्रजन्ति-दीक्षां गृह्णन्ति । तथा 'धण्णा णं' धन्याः खलु ते 'राईसर०'. राजेश्वर० राजेश्वरादयः 'जे णं' ये खलु 'समणस्स ३' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतिए' अन्तिके समीपे 'पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म' पञ्चाणुव्रतिकं यावत्-गृहिधर्म-पश्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षातिकं द्वादशविधं गृहिधर्म ‘पडिबजेति' प्रतिपद्यन्ते। तथा 'धण्णा णं' धन्याः खलु ते 'राईसर०' राजेश्वरादयः 'जे गं' ये खलु 'समणस्स ३' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'अंतिए' अन्तिके 'धम्म' धर्म-श्रुतचारित्रलक्षणं 'सुणेति' शृण्वन्ति 'तं' तत्-तस्मात्कारणात् 'जई है। 'धण्णाणं ते राईसर० जे णं समणस्स३ अंतिए मुडा जाव पव्वयंति' वे राजा और राजेश्वर प्रभृति भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर के समीप मुंडित होकर दीक्षा धारण करते हैं। यहां 'राईसर' पद से "तलवरमाडंवियकोडंविय-इन्भसेडिसेणावइसत्थवाहप्पभियओ' इन पदों का भी संग्रह हुआ है । चक्रवर्ती आदि राजा, ऐश्वर्यसंपन्न व्यक्ति ईश्वर, जिन्हें राजा सन्तुष्ट होकर लक्ष्मीपट्टबंध देता है, ऐसे राज-तुल्य मानव तलवर, गांव के अधिपति माडम्बिक कहे गये हैं एवं कौटुम्बिक आदि जन तो प्रसिद्ध ही हैं। तथा-(धण्णा णं ते राईसर० जेणं समणस्स ३ अंतिए पंचाणुव्बइयं जाव गिहिधम्म पडिवज्जति वे राजेश्वर प्रभृतिजन इसलिये भी धन्य हैं कि जो श्रमण भगवान् महावीर के समीप पाच अणुव्रत साम शिक्षाबन एवं बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म भडावीर वियरे छे ते प्रामा४ि धन्य छ 'धण्णा णं ते राईसर० जे णं समणस्स३ अंतिए मुंडा जाव पव्वयंति' ते २५२ अमृति पार धन्य छ रेमो श्रमण भगवान महावीर वियरे छे ते यामानि धन्य छे 'धण्णा णं ते राईसर० जेणं समणस्स३ अंतिए मुंडा जाव पञ्चयंति' ते सरेश्वर प्रभृति या धन्य छ જેઓ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પાસે મુંડિત થઈને દીક્ષા ધારણ કરે છે. અહીં "स२” पहथी 'तलवर-माडं विय-कोडुविय-इन्भ-सेहिसेणावइ सत्थवाह-प्पभियओ' આ પદે પણ સંગ્રડ થયે છેચક્રવત્તી રાજા, ઐશ્વર્ય સંપન્ન વ્યકિત ઈશ્વર, જેના પર રાજા પ્રસન્ન થઈને પટ્ટાબંધ આપે છે એવા માનવ તે રાજા જેવો છે તેને તલવર કહે છે, ગામના અધિપતિ તે મામ્બિક કહેવાય છે, અને કૌટુમ્બિક આદિ भासो त प्रसिद्ध छे. तथा धण्णा णं सईसर० जणं समणस्स३ अंतिए पंचाणुव्वयं नाव गिहिधम्म पडिवज्जति'. ते४ २२२५२ प्रति भास भेटमा માટે ધન્ય છે કે જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના પાસે પાંચ અણુવ્રત-સાત શિક્ષાત્રત

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