Book Title: Vipaksutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 767
________________ विपाकचन्द्रिका टीका, श्रु० २, अ० १, सुवाहुकुमारवर्णनम् २७ चित्तं यस्य स हृष्टतुष्टचित्तः, अतएव आनन्दितःआनन्द प्राप्तः संजातमानसौल्लास इत्यर्थः । 'पीइमणे' प्रीतिमनाः प्रीतिः तृप्तिः सुदत्तानगारदर्शनेन मनसि यस्य स तथा; तृप्तमानस' इत्यर्थः, 'परमसोमणस्सिए' परमसौमस्यितः परमम्= उत्कृष्टं च तत् सौमनस्यं प्रसन्नचित्तता चेति परमसौमनस्यं तत्संजातमस्येतिपरमसौमनस्यितः मुनिदर्शने परमानुरागपूर्णमनस्क इत्यर्थः, हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशविसर्पहृदयः-हर्षवशेन विसर्पत्=परित उच्छवलद् हृदयं यस्य स तथा, सुदत्तानगारदर्शनादमन्दानन्दतरङ्गसमुच्छलितचित्त इत्यर्थः । 'आसणाओ अब्भुटेइ' आसनाद् अभ्युत्तिष्ठति 'अब्भुट्टित्ता' अभ्युत्थाय 'पायपीढाओ पच्चोरुहइ' पादपीठात् प्रत्यवरोहति अवतरति, पचोरुहित्ता' प्रत्यवरुह्य अवतीर्य 'पाउयाओ' पादुके 'ओमुयइ' अवमुञ्चति 'ओमुइत्ता' उवमुच्य 'एगसाडियं' एकशाटिकम्-एका अखण्डा स्यूतरहिता शाटिका-वस्त्रं यस्मिन्नुत्तरासङ्गे स तथा तं तादृशम् , उत्तरासंगं' उत्तरासङ्गं यतनाथै मुखोपरिवस्त्रधारणं 'करेइ' करोति, 'करित्ता' कृत्वा गृहागतं सुदत्तमनगारं 'सत्तट्ठपयाई' सप्ताष्टपदानि 'अणुगच्छइ' अनुगच्छति-सम्मुखं गच्छति, 'अणुगच्छित्ता' अनुगम्य 'तिक्खुत्तो' त्रिवारम् देखकर मनमें उसके खूब तृप्ति हुई, मुनिदर्शन से उसके हृदय में असाधरण अनुराग जाग्रत हुआ । हर्ष के वश से उसका अन्त:करण भर गया, आनंद के मारे उसका चित्त उल्लसित होने लगा। वह शीघ्र ही अपने आसन से उठा और 'अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ' उठकर पादपीठ से होकर वह उससे नीचे उतरा ‘पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ' और उसने अपने पैरों से पादुकाएँ उतारों 'ओमुइत्ता' एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' पादुकाएँ उतार कर उसने एकशाटिक उत्तरासंग-जीवों की यतना के लिये मुख के उपर एक वस्त्र धारण किया । करित्ता सुदत्तं अणगारं सत्तट्टपयाई अणुगच्छइ' वस्त्र धारण कर फिर वह सुदत्त अनगार के सामने सात आठ पग चला 'अणुगच्छित्ता થઈ, મુનિ દર્શનવડે તેના હૃદયમાં અસાધારણ પ્રેમ જાગૃત થયે. ઉર્ષ થવાથી તેનું અન્તકરણ ભરાઈ ગયું, અને આનંદને લીધે તેનું ચિત્ત હલાસમાં આવી ગયું, भने त तुरत पोताना शासनथी ४या भने 'अब्भुहित्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ' ही पापी४थी नाये जतर्या पच्चोरुहिता पाउयाओ ओमुयइ' भने पोताना यानी पाढा तारी 'ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ ' पाहुये। ઉતારીને તેણે એક શાટિક–ઉત્તરાસંગ-જીની યતન માટે મુખ ઉપર એક વસ્ત્ર धारय युः ‘करित्ता सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठपयाइंअणुगच्छइ पर धार ४शने

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