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(१५७) सही; घरी निर्मल काजो उझरी, आवे सिरि साचवणी करी ॥ १३१ ॥ पुर मंदिर चिंता परिहरे, समता सामायक श्रादरे, गुरु विरहे उपहारि थाप, जीव योन खमावे आप ॥ १३॥ पंच सहस खट शत ने त्रीस, जीव नेद बोले जगदीश; मिला उकम जेद विचार; विगते वर्ण बिलाख अढार ॥ १३३ ॥ पूरा परठे सहस चो. वीस, एकसो उपर अधिका वीस; मिठा पुक्कड थरथे करी, खामो तो पामो सीव पुरी ॥१३४॥ मि मृमुनावि घणमां कोये, बा पर दोष सकल ढांकीय; मि कहेतां मर्यादा रह्यो, उ श्रापोपुं मर्यादा ग्रह्यो ॥ १३५ ॥ क कहिजे जे कीधुं पाप, म ते उवसम आणी आप; अरथ सहित जे एणी परे लह्यो, सुधो मिला मुक्कम कह्यो ॥१३६ पुढवि काय अप तेन वाय, सात सात लाख कहे जिन राय; वणसर दश लाख बाहर वली, चौद लाख अनंते मती ॥ १३॥ बि ति चरिंदी दो दो लाख, तिरि पंचिंदी चुलख जाख; सुर नारय
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