Book Title: Vasupujya Jin Punya Prakash Stavan
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 8
________________ अनुसंधान-३० ___ जो पुण्याढ्यराय नही मो(मा)नइ तस शिर वज्र लुणेसि । इम आकाशि सुणी सुरवाणी जण पुण्याढ्य थुणेसी ॥५॥ देखो० । ५८ धनावहो पणि अंबर-वाणी सुणीय राय-पगे लागो । देश देश पुण्याढ्य रायनो यशपडहो जइ वागो ॥६॥ देखो० । ५९ इंद्रसरीखो राज करतई राय भण्यो वनपाल । तपनराज ऋषि तुझ वति अम्हे दर्शन दुरितां गालइ ॥७॥ देखो० । ढाल - सीमंधर जिन त्रिभुवन भानुनो । अथवा चंदाइणिनो । ६० पुरि तिणि ज्ञानी चंदो उग्यो । तिण जन-तिमिर गयो अति-सुगो । गुहमुखि अमृत पीइ जन झूक्यो । तिणि मिथ्या-रोगि जन मूक्यो ॥१॥ राजऋषि सोइ धर्म सुणावइ । भविक सभानां पाप हणावइ । इति वचनामृत राय सुणीनइं । तस वनपाल दरिद्र हणीनई ॥२॥ हरखइ गजवरस्युं गुरु वंदइ । गुरुदरिशनि निजपाप निकंदइ । चतुविाह]धर्म सुणी गुरु पासि । भूपति धरमई निजचित वासि । शु(सु)गुरूवचनां सतत उपासई ॥३॥ कोइ जीव विवहारीय-रासी ।। जीवायोनि तिणि लाख चउरासी । भमता वार अनंता वासी । शठ न कहइ हित आप विमासी ॥४|| ६४ जे जगमा छइ वस्तु विनासी । तस कारणि मूढातिप्रयासी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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