Book Title: Vasupujya Jin Punya Prakash Stavan
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ अनुसंधान-३० दानशील तपो जगमा भावनां जेणइ अणुसरी । संसार सागर सुणो भविआं गया ते सुखि उतरी । १५५ तरिओ दानिय महति सागरो । . तिम तपि तरिओ संवर मुनिवरो ॥३॥ त्रोटक १५६ सनतकुमारो सील तरिओ तरी सिणगारसुंदरी । भावि चंद्रोदरो वरिओ गुरइं च्यार कथा कही ॥ अथिर तनु धनु राज यौवन युवति भोगा भंगुरा । विविध रोगई विविध शोकई विविध दुखिआ किंकरा ||४|| १५७ राजन सुणि तुं जगि जे दोहिलां । ते तई पाम्या पुण्यई सोहिला ॥५।। त्रोटक १५८ सोहिला पाम्यां पुण्य योगई पंच इंद्रिय पडवडां । मनुज भव शुभ देश शुभ कुल देवगुरु शुभ वचनडां । आराधि तुं ए भव महोदधि तरण कारणि प्रवहणां । विविध भवमां जीव कीधा जननी-सुख(त) सगपण घणां ॥६॥ १५९ बोल्या नरपति गुरुवयणां । जननी जायो गुरु तुं वर धणी ॥७॥ त्रोटक १६० धणी तुं मुझ होइ मुनिवर देहि दीख्या आपणी । घरि नई निज राजचिंता पुत्र थापी पुर धणी । भणइ तव गुरुराजराजन, धर्म विलंब न कीजीइ । धम्मि आलस करइ जो जगि तेहि दुर्गति लीजीइ ॥८॥ ढाल - राग - गढडी ।। १६१ दिइ दिइ दरिशन आपणुं निज सुत राजधणी करी । छंडी सब संयोगो दिख्या-नाव जलनिधि तरी । छंडी अंतिम सब भोगो ||१|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47