Book Title: Vasupujya Jin Punya Prakash Stavan
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan
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अनुसंधान-३०
२१८ हणस्यइ तुझ पुत्रो मोह-तिमिरनइं जाणे ।
सुभगे सत्तम हूं आदित जो सुभनाणे ॥८॥ २१९ कुल धज तुझ नंदन होस्यइ आठमइ जोई ।
विणु पुण्यइं सुपनि नारि न देखति कोई ॥९॥ २२० न्यानादिक गुण-मणि-कुंभो छि तुझ कूखि ।
हूं नवमो कुंभो देखि म जाइ सि दूखइं ॥१०॥ २२१ जन तृष्णावेदी मुझ परि तुझ सुत देवई ।
तिणि पद्मोत्त(र) सरोवर दसमु तुं मुझ सेवी ॥११॥ २२२ सुत गुण रत्नाकर गंभीरो मुझ मित्र ।
सुभगे रत्नाकर एकादशम पवित्र ॥१२॥ २२३ दूर्लभ हूं जाणे अपुण्याजन नई देवी ।
तुझ पुण्यवंतीनइं सुरविमान मुझ सेवी ॥१३॥ २२४ तुझ सुत मुझ मित्र अनंता गुण मणिवासी ।
हूं सुपनइं आव्यो विविध रतननो रासी ॥१४॥ २२५ सुत कम्मिधणनि ध्यानागनिइ दहेसि ।
निधूम अगनि हूं सुपनई जो शुभवेसी ॥१५॥ ढाल ॥ राग-अधरस ॥ २२६ अनुपम सुपनला रे प्रिय मइ आज सुपनमई देख्यां ।
प्राणनाथ तस फल मुझ कहीइ एहवां कहीं न देख्यां ।।१।। अनुपम० । २२७ सुपन चउद देखी अति हरखी सुमुखी जिननी जननी ।
सुपनतणां फल प्रिय प्रति पूछइ अतुरति गजगति-गमनी ॥२।। अनुपम० । २२८ वसुधाधिप वसुपूज्य सुणीनई एणइ वचंनि अतिहरखइ ।
जया राणि ते अनुक्रमि कहितां राजा निजमति निरखइ ॥३॥ अनुपम० । २२९ निजमति सुपन विचारी बोलइ निज-धरणी प्रति भूप ।
अतुली-बल तुझ नंदन होस्यइ तस सुरपति-समरूप ॥४॥ अनुपम० ।
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