Book Title: Vasupujya Jin Punya Prakash Stavan
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan
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December-2004
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१८३ त्रिवधि मिच्छादुक्कडं खमार्बु मन साखि रे ।।
ते सवे जीव खमावीआ शरण च्यार मुख भाखि रे ॥१०॥ वीस था० । १८४ पापथानक सवि वोसिरयां सदा मोहनां हेतु रे ।
उपकरणां सवे वोसिरयां नवकार धरइ चित रे ॥११॥ वीस था० । १८५ पंच नवकार चिति राखता देह पंजिरं छंडि रे
प्राणत देवलोकई गयो लिओ सुर सुखपिंड रे ॥१२॥ वीसथा० । ढाल - अढीय द्वीपमा जे त्रिकाल पुरुषोत्तम हूओ आसनकए-ए ढाल । १८६ देवो पुण्य निधान चंद्रासासविमानमां ए सुर शय्या थी ।
ऊठि पुण्यविचार ज्ञानमा ए ॥१॥ १८७ उदयाचल जिम सूर उग्यो शोभति तमहरुए ।
देह अनोपम रूप तिम तिहां शोभति सुर वरुए ॥२॥ १८८ जय जय तुं चिरंजीव सामि हमारो उपनो ए ।
सेवक सुर परिवार कहइ कुण पुण्यइं जीवनो ए ॥३।। १८९ पुस्तक वी(वां)चीय सार सुर शुभ करणी आदरइ ए ।
जिनघर प्रतिमा रूप सत्तर भेद पूजा करइ रे ॥४॥ १९० नाटक सुर सुख भोग सुखसागरमां झीलता ए ।
काल न जाणइ देव जिम हंसा सरि कीलतां ए ॥५॥ १९१ जिन कल्याणक काज करीअ सुणइ जिनदेशनाए ।
नंदीसरवर यात्र महरिसी वंदइ देशनाए ॥६॥ १९२ केवलनाण-निहाण विणुं संयम नवि पामीइ रे ।
विणु माणव अवतार तिणि नरभव सुरि कामीइ ए ॥७॥ ढाल - त्रिभुवन जिनपति वीर । १९३ दीप असंखई वेढिउं धुरि जंबूअदीवो रे ।
जीवो रे जिहां आवइ छइ जिणवर तणो ए ॥१॥
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