Book Title: Vasupujya Jin Punya Prakash Stavan
Author(s): Shobhna R Shah
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 21
________________ December-2004 35 १८३ त्रिवधि मिच्छादुक्कडं खमार्बु मन साखि रे ।। ते सवे जीव खमावीआ शरण च्यार मुख भाखि रे ॥१०॥ वीस था० । १८४ पापथानक सवि वोसिरयां सदा मोहनां हेतु रे । उपकरणां सवे वोसिरयां नवकार धरइ चित रे ॥११॥ वीस था० । १८५ पंच नवकार चिति राखता देह पंजिरं छंडि रे प्राणत देवलोकई गयो लिओ सुर सुखपिंड रे ॥१२॥ वीसथा० । ढाल - अढीय द्वीपमा जे त्रिकाल पुरुषोत्तम हूओ आसनकए-ए ढाल । १८६ देवो पुण्य निधान चंद्रासासविमानमां ए सुर शय्या थी । ऊठि पुण्यविचार ज्ञानमा ए ॥१॥ १८७ उदयाचल जिम सूर उग्यो शोभति तमहरुए । देह अनोपम रूप तिम तिहां शोभति सुर वरुए ॥२॥ १८८ जय जय तुं चिरंजीव सामि हमारो उपनो ए । सेवक सुर परिवार कहइ कुण पुण्यइं जीवनो ए ॥३।। १८९ पुस्तक वी(वां)चीय सार सुर शुभ करणी आदरइ ए । जिनघर प्रतिमा रूप सत्तर भेद पूजा करइ रे ॥४॥ १९० नाटक सुर सुख भोग सुखसागरमां झीलता ए । काल न जाणइ देव जिम हंसा सरि कीलतां ए ॥५॥ १९१ जिन कल्याणक काज करीअ सुणइ जिनदेशनाए । नंदीसरवर यात्र महरिसी वंदइ देशनाए ॥६॥ १९२ केवलनाण-निहाण विणुं संयम नवि पामीइ रे । विणु माणव अवतार तिणि नरभव सुरि कामीइ ए ॥७॥ ढाल - त्रिभुवन जिनपति वीर । १९३ दीप असंखई वेढिउं धुरि जंबूअदीवो रे । जीवो रे जिहां आवइ छइ जिणवर तणो ए ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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