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ढाल-राग- देशाख
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तरुतलि तुं सोडिताणी उंघि सूतो घोरतो । हस्ति आवी राज दीधुं विचरि कर्मह चूरतो ॥ ९ ॥
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यथा गलिय - बलदीई रथ न चालइ | तथा तुझ शरीरई किरिया न चालइ ॥३॥ यथा नव परिग्रह विना घर न चालइ । तथा तुझ शरीर विहारो न चालइ || ४ || यथा सिंधु जलवासु विणु नाव न चालइ । तथा तुझ शरीरइं समासन न चालि ॥५॥ १०० यथा शासनं साधु विणु नैव चालइ ।
तथा तुझ शरीरइं वेयावच्च न चालइ ||६| १०१ यथा आजीविका आलसू (सू) खा न चालइ । यथा जूठ बोला प्रति कुणि न चालइ ॥७॥ १०२ यथा दान पुण्यं विना यश न चालई । प्रतिलेखनादिक तथा तिं न चालइ ॥ ८ ॥ १०३ यथा गुरु विना पठन-पाठ न चालइ । यथा पंच भूतं विना जगि न चालई ||९|| १०४ यथा आहार निहारविणुं तणुं न चालइ । तथा वंदणावर्त्तपणितिं न चालई ॥ १० ॥ १०५ यथा पंचनिश्रा विना गुरु न चालइ । तथा तिं गुरुकाय विनयो न चालई ॥ ११ ॥
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सुणि निजसरुप चिति भावीउ रे बहु उपशम रायनई आवीउ रे ॥१०॥ भवतारणी तपन मुनिपासइ नामइ तपस्या जेणि सर्व सुख शांति
जाई ॥ १ ॥
भणि तपन वर राजऋषि तुझ शरीरई । विसकोव छइ जिम सदा फल करी रई ॥२॥
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