Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 6
________________ प्रस्तुत उत्तराध्ययन सूत्र बत्तीस आगमों में एक मूल आगम है। इसे मूल सूत्र के रूप में स्थापित करने के पीछे क्या लक्ष्य रहा? इसके लिए आचार्य भगवंतों ने समाधान फरमाया है कि आत्मोत्थान के लिए प्रभु ने उत्तराध्ययन सूत्र के मोक्षमार्ग गति नामक अट्ठाईसवें अध्ययन की इस गाथा के द्वारा सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। णाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एयं मग्ग-मणपत्ता, जीवा गच्छति सुग्गइं॥ अर्थात् - सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप यह मोक्षमार्ग है। इस मार्ग का आचरण करके ही जीव सुगति - मोक्ष को प्राप्त करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र सम्यग्-दर्शन, चारित्र और तप का प्रतीक है, जबकि दशवैकालिक चारित्र और तप का। अनुयोगद्वार सूत्र दर्शन और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है और नंदी सूत्र में पांच ज्ञान का निरूपण किया गया है। इस कारण उत्तराध्ययन सूत्र की गणना मूल सूत्रों में की गई है। सम्यग्-दर्शन के अभाव में ज्ञान, चारित्र और तप तीनों क्रमशः मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और बाल तप माने गये हैं। जहाँ सम्यग्दर्शन होगा वहीं नियमा ज्ञान, चारित्र और तप भी सम्यक् होगा और इन्हीं की उत्कृष्ट आराधना को प्रभु ने मोक्ष मार्ग बतलाया है। इन्हीं हेतुओं के कारण इस सूत्र की गणना मूल सूत्र में की गई है। श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी ने कल्पसूत्र में लिखा है कि श्रमण भगवान् महावीर कल्याण फल विपाक वाले पचपन अध्ययनों और पाप फल वाले पचपन अध्ययनों एवं छत्तीस अपृष्टव्याकरणों की प्ररूपणा करते-करते सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गये। इसी आधार से यह माना जाता है कि छत्तीस अपृष्ट-व्याकरण उत्तराध्ययन के ही छत्तीस अध्ययन हैं। इस बात की पुष्टि उत्तराध्ययन -सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा से भी होती है। इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए। छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धीयसंमए।।। .. भावार्थ - इस प्रकार भवसिद्धिक संमत्त - भव्य जीवों के सम्मत्त (मान्य है) ऐसे उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीस अध्ययनों को प्रकट कर के बुद्ध - तत्त्वज्ञ केवलज्ञानी ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी परिनिर्वृत - निर्वाण को प्राप्त हो गये। ____ उत्तराध्ययन सूत्र प्रभु महावीर की अन्तिम देशना होने से इसका महत्त्व वैसे भी अत्यधिक हो जाता है क्योंकि परिवार में भी प्रायः देखा जाता है कि पुत्र अपने पिताश्री द्वारा दी गई अन्तिम शिक्षा का पालन करने का विशेष ध्यान रखते हैं। इसी प्रकार परमपिता भगवान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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