Book Title: Updeshpad Mahagranth Satik Part 02
Author(s): Jinendrasuri,
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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11८३७||
तहावि देंतेण दइएण ||१।। अवियालिंगई अंग भयवं धूमद्धओ धुवं मज्झ । ण उण सुमित्ता अन्नो पुरिसो सरिसोवि मयणेण ॥२॥" एवं च कयनिच्छयं तं बहप्पयारसवहेहिं काराविऊण पाणवित्ति जाया सुमित्तमग्गणिकमणा वड्डा । । अन्नया दिट्ठो कसिंगारो घरासन्नरच्छाए बोलितो । तओ तुरियं गंतूणं, सविणयमाणीओ निहेलणं, काऊण महंतं पडिवत्ति, भणिओ य पुत्त ! जुत्तं किं नाम तहा पवसणं । अविय -"जलपाणत्थ निविट्ठो उड्डेतो कहइ पंछिओ वत्तं । तं
पुण दंसियनेहा कहमकहता पउत्था सि ? किर कत्थ कत्थ न मए पुत्त ! गविट्ठो सिं एत्तियं कालं । णय दंसणदाणेणं र कओ पसाओ तह अम्ह ।।२।। एसा य मज्झ दुहिया संपत्ता पेच्छ पाणसंदेहं । नय निन्नेहा जाया मुक्का अवराह
विरहेवि ॥३॥" तओ सुमित्रोण अहो धुत्तीए धिया जमेहहमेत्तावराहपि निण्हवेइ, तहावि न अन्नो चितामणि लहणोवाओत्ति भावेंतेण अदंसियवियारं भणियं-मा एवमन्नहा संभावेह, अहं खु उत्तालपओयणेण देसंतरं गओ, अजं चेवागओ, वक्खेवाओ य नेह पत्तो म्हि । एयमायण्णिय पम्हट्ठविलीउत्ति तुट्ठा कुट्टणी, तहावि चप्फलिया भविस्सामित्ति न समप्पेइ चिंतामणि । तओ कयाइ वीसत्था भणिया णेण रइसेणा-पिए ! दंसेमि एकंपि कोउयं जई न रूसिहिसि । तओ दंसेहित्ति भणिए पुव्वं भणिएणंजणेणं तं करहिं काऊण गओ समंदिरं । इयरीवि भायणावसरे वाहरिया वाइगाए, अदिनपडिवयणत्ति संभमाओ सबविया य । दळूण तहारूवं, किमन्ने एयाए खइया हाही णूणं, रक्खसी एसा कहमण्णहा एत्थ पासायतले आरूढत्ति भीयाए सहसा उकइयं वाइगाए। ताहे धाविओ परियणो सेसजणो य । जाओ सव्वेसि विम्हओ को पुण तुहं सुयाए भुयंगोत्ति पुच्छिए साहियं तप्परियणेण अणजमाणगो देसंतरिओ कोवि।
७॥

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