Book Title: Uktiratnakara Author(s): Jinvijay Publisher: Rajasthan Puratattvanveshan Mandir View full book textPage 4
________________ हर्ष और सन्नोषका विषय है कि राजस्थान सरकारने हमारी विनम्र प्रेरणासे प्रेरित हो कर, इस राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर ( राजस्थान ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट ) की स्थापना की है और इसके द्वारा राजस्थानके अवशिष्ट प्राचीन ज्ञानभण्डारकी सुरक्षा करनेका समुचित कार्य प्रारंभ किया है । इस कार्यालय द्वारा राजस्थानके गांव-गांवमें ज्ञात होने वाले ग्रंथों की खोज की जा रही है और जहां कहींसे एवं जिस किसीके पास उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनको खरीद कर सुरक्षित रखनेका प्रबन्ध किया जा रहा है। सन् १९५० में इस प्रतिष्ठानकी प्रायोगिक स्थापना की गई थी, और अब पिछले वर्ष, १९५६ के प्रारंभसे, सरकारने इसको स्थायी रूप दे दिया है और इसका कार्यक्षेत्र भी कुछ विस्तृत बनाया गया है। अब तकके प्रायोगिक कार्य के परिणाममें भी इस प्रतिष्ठानमें प्रायः १०००० जितने पुरातन हस्तलिखित ग्रन्थोंका एक अच्छा मूल्यवान संग्रह संचित हो चुका है । आशा है कि भविष्यमें यह कार्य और भी अधिक वेग धारण करता जायगा और दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक उन्नति करता जायगा। जिस प्रकार उक्त रूपसे इस प्रतिष्ठानके प्रस्थापित करने का एक उद्देश्य राजस्थानकी प्राचीन साहित्यिक संपत्तिका संरक्षण करनेका है. वैसा ही अन्य उद्देश्य इस साहित्यनिधिके बहुमूल्य रत्नस्वरूप ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेका भी है। राजस्थानमें उक्त रूपमें जो प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उनमें सेंकडों ग्रन्थ तो ऐसे हैं जो अभी तक प्रकाशमें नहीं आये हैं: और सेफडों ही ऐसे हैं जिनके नाम तक भी अभी तक विद्वानोंको ज्ञात नहीं है । यह सब कोई जानते हैं कि इन ग्रन्थों में हमारे राष्ट्रके प्राचीन सांस्कृतिक इतिहासकी विपुल साधन-सामग्री छिपी पड़ी है । हमारे पूर्वज हजारों वर्षों तक जो ज्ञानार्जन करते रहे उसका निष्कर्ष और नवनीत नीकाल नीकाल कर, वे अपनी भावी सन्ततिके उपयोगके लिये इन ग्रन्था त्मक कृतियोंमें संचित करते गये। व्याकरण, कोष, काव्य, नाटक, अलंकार, छन्द, ज्योतिष, वैद्यक, कामविज्ञान, अर्थशास्त्र, शिल्पकला आदि लौकिक विद्याओंके ज्ञानके साथ श्रुति, स्मृति, पुराण, धर्मसूत्र, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, जैन, बौद्ध, शाक्त, तंत्र, मंत्र आदि धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विद्याओंके रहस्य भी इन ग्रन्थों में नाना स्वरूपोंमें ग्रथित किये हुए हैं । इसी प्रकार, युग युगमें होने वाले अनेक शूर-वीर, दानी-ज्ञानी, सन्त-महन्त, त्यागी-वैरागी, भक्त-विरक्त आदि गुण विशिष्ट नर-नारी जनोंके जीवन और कार्योंके विविध वर्णन-चित्रण भी इन्हीं ग्रन्थों में अन्तर्निहित हैं । अर्थात् हमारे राष्ट्रकी सर्व प्रकारकी गौरव-गरिमाविषयक कथा-गाथाकी रक्षा करने वाला हमारा यही एकमात्र प्राचीन साहित्यसंग्रह है। इसी के प्रकाशसे संसार में भारतका गुरुपद ज्ञात हुआ और स्थापित हुआ है। यद्यपि आज तक इनमें से हजारों ही प्राचीन ग्रन्थ, प्रकाशमें आ चुके हैं, फिर भी हजारों ही ऐसे ग्रन्थ और बाकी हैं जो अन्धकारके तलघर में दटे पडे हैं । इनका उद्धार करना और इन्हें प्रकाशमें रखना यह अब इस नूतन जीवन प्राप्त नव्य भारतके प्रत्येक व्यक्ति और संस्थाका परम कर्तव्य है। इसी कर्तव्यको लक्ष्य कर, इस संस्था द्वारा 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका आयोजन भी किया गया है। इसके द्वारा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओं में निबद्ध विविध विषयों के प्राचीन ग्रन्थ, तज्ज्ञ एवं सुयोग्य विद्वानोंसे संशोधित और संपादित हो कर प्रकाशित किये जा रहे हैं। अब तक कोई छोटे बडे २० ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और प्रायः ३० से अधिक ग्रन्थ प्रेशोंमें छप रहे हैं । राजस्थान सरकार वर्तमानमें, इस कार्य के लिये प्रतिवर्ष २०००० रूपये खर्च कर रही है-पर हमारी कामना है कि भविष्यमें यह रकम बढाई जाय और तदनुसार अधिक संख्यामें इन प्राचीन ग्रन्थों का समुद्धार और प्रकाशन कार्य किया जाय । साहित्यका प्रकाश ही प्रजाके अज्ञानान्धकारको नष्ट कर, उसे दिव्यताका दर्शन कराता है। माघ शुक्ला १४, वि. सं. २०१३.1 (जीवनके ७० वें वर्षका प्रथम दिन)। मुनि जिन विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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