Book Title: Tulsi Prajna 2000 04
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ इस कार्य की संयोजना का उद्देश्य रहा है कि भगवान महावीर का दर्शन सब तक पहुंचे, क्योंकि युगीन सन्दर्भों में महावीर के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक एवं उपयोगी लगते हैं जितने हजारों वर्षों पूर्व लगते थे । आज भी आदमी भीतर से आदम युग का आदमी बनकर जी रहा है। आज जरूरत है विचारक्रांति के साथ व्यक्तिक्रांति की । सिर्फ व्यवस्था बदले और व्यक्ति नहीं तो सार्थक परिणाम संभव नहीं होते । अतः व्यक्ति की दिशा और दशा के परिष्कार में सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण होना भी अत्यावश्यक है । संसार विरोधी धर्मों का समवाय है। सबके स्वभाव, आदतें, इच्छाएं रुचियां, विचार, कर्म, योग्यताएं एक-सी नहीं होती । इस वैविध्य में यदि आग्रही पकड़ हो जाए कि मैं ही हूं और सब गलत तो एक पक्षीय स्वीकृति हमें सत्य तक नहीं पहुंचने देगी। वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। सारे धर्म एक साथ न व्यक्त होते हैं और न ही उनकी एक साथ व्याख्या की जा सकती है। पर्याय प्रतिक्षण बदलती है । एक समय में एक ही पर्याय को जीया जा सकता है, देखा जा सकता है । सर्वज्ञ भी वस्तु के अनन्त धर्मों को एक साथ जान सकते हैं मगर कह नहीं सकते । अतः सम्पूर्ण को ग्रहण करने का दावा सही नहीं होता । सत्य की खोज में इसी ऋजु दृष्टिकोण की जरूरत है। हम स्वयं को सही माने और दूसरों को गलत कहें, यह सत्य की स्वीकृति नहीं । औरों की अपेक्षाएं भी आदेय है। अपने विचारों की प्रशंसा और दूसरों की आलोचना सत्य की स्वीकृति नहीं, यह सिर्फ स्वार्थों की आग्रही पकड़ है। आज जहां भी संघर्ष हैं, मतभेद हैं, वैचारिक विवाद हैं, वैमनस्य का तनाव भरा माहौल है, घृणा है वहां संही समझ, शांति, सन्तुलन, समन्वय, सौहार्द संभव नहीं। इसलिए सत्योपलब्धि में ऋजुधर्मी होना जरूरी है, क्योंकि धम्मो शुद्धस्स चिट्ठई, धर्म. शुद्धात्मा में ही ठहरता है । अनेकान्त के साथ अहिंसा, अपरिग्रह, मैत्रीभाव, सह-अस्तित्व एवं समन्वय की भावना जुड़ी है । अनेकान्त के बिना राग द्वेष का उपशमन संभव नहीं है। वस्तु एक होते हुए भी राग या द्वेष की आंखों से देखने पर वह अपना स्वरूप बदल लेती है, इसीलिए कहा गयापरस्परोपग्रहो जीवानाम्-परस्पर में एक दूसरे का सहयोग लेना प्रकृति का नियम है। जन्म है तो मृत्यु भी है, सुख है तो दुःख भी है, आशा है तो निराशा भी है। प्रतिभावों का युगल जीवन का सत्य है। इस सत्य तक पहुंचने का मुख्य रास्ता है अनेकान्त । जहां न पक्षपात है, न अहं संपोषण, न प्रतिस्पर्धा, न अधिकारों की लड़ाई | स्वार्थों की आग में परमार्थ तपकर सामने आता है। 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only NIW तुलसी प्रज्ञा अंक 109 www.jainelibrary.org

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