Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 39
________________ आप्लायित करती आयी है । इस धारा [स्याद्वाद] को अग्रसर करने में ही जैनधर्म का महत्त्व है । इस धर्म का आचरण सदा प्रत्येक जीव का कर्तव्य है।" निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि पैदिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले उपनिषदों ने जैन धर्म [श्रमण संस्कृति के प्रशस्त जीवन मूल्यों को आत्मसात् करके अपनी समन्वयात्मिका दृष्टि को उजागर किया है । अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य एवं तपादि ऐसी प्रकृष्ट अवधारणाएं हैं, जो उपनिषदों एवं जैन धर्म को समान रूप से मान्य हैं। पुरोहित कर्मकाण्ड एवं पशुहिंसा से धूमिल हुए यज्ञ को दिव्यता प्रदान करने में दोनों की समानभागिता है । हृदय को विशाल तथा दृष्टि को निर्मल एवं निष्पक्ष बनाने वाले 'अनेकांतवाद' के प्रति दोनों (उपनिषदों एवं जैन धर्म) की तुल्य आस्था है। संदर्भ सूची १. 'जैन धर्म की प्राचीनता एवं सार्वभौमिकता' [लेख] ले० डॉ० देवेन्द्र कुमार ____ शास्त्री, बाबू छोटेलाल जैन स्मृतिग्रन्थ, पृ० २००-२०१, [कलकत्ता १९६७] । २. 'व्रात्य और श्रमण संस्कृति' [लेख] ले० डॉ० फूलचन्द जेन 'प्रेमी', ऋषभ सौरभ , पृ० ७०, ऋषभ देव प्रतिष्ठान, दिल्ली [१९९२] ३. 'उपनिषद् और आचारांग' [लेख] ले० डॉ० हरिशंकर पाण्डेय, तुलसी प्रज्ञा, पृ० १३५, जैन विश्व भारती इन्स्टीच्यूट रिसर्च जनरल, लाडनूं [जुलाई-सितम्बर १९९५] ४ 'भारतीय दर्शन', ले० डॉ० नन्द किशोर देवराज, पृ० ६५-६६ ५. माधवाचार्य रचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' पर व्याख्या लिखते हुए महामहोपाध्याय श्री वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर ने वेदोक्तलोक में आस्था न रखने वाले जिन दर्शनों का संकेत दिया है, उनमें जैन दर्शन भी है। (द्रष्टव्य-'सर्वदर्शनसंग्रह' पर श्री वासुदेव शास्त्री अभयंकर रचित संस्कृत भाष्य, भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पुना, १९७८ (ई०), पृ० २) ६. 'भारत और विश्व', ले० डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० २५ ७. 'भारतीय दर्शन', ले० वाचस्पति गैरोला, पृ० ८३ । ८. [i] 'जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज', ले० डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, पृ० १ [ii] According to the belief of the Jains themselves, the Jaina dharma is eternal, ........***** In the present period, which is Awasparni according to the Jains, there are 24 Tirathan karas. The First of them was Rsabha". ['Jainism Trough बम २३, बंक ३ २८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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