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(२) दूसरा लेख पंक्ति--१.७०।। संवत् १३५६ कात्तिक्यां श्री युगादिदेव विधि " -२. चैत्ये श्री जिनप्रबोधसूरि पट्टालंकार श्री जि. " -३. न चन्द्र सूरि सुगुरुपदेशेन । सा० गाल्लण सु " --४. त सा० नागपाल श्रावकेण सार्थग्रहणादि " --५. पुत्र परिवृतेन (संघ) चतुष्टिका सुपुत्र ० " ~~-६. सा० मूलदेव श्रेयार्थं सर्व संघ प्रासादा " -७. थं कारिता । आचन्द्राक्र्कनं-दतात् । शुभं
(३) तीसरा लेख पंक्ति--१. ७०॥ संवत् १३५६ कात्तिक्यां श्री युगादिदेवविधि " -२. चैत्ये श्री जिनप्रबोधसूरि पट्टालंकार श्री जि. " --३. न चन्द्र सूरि सुगुरुपदेशेन । सा० आल्हण सुत " -४. सा० राज --सा० संतोषेण श्रावके-- " -~-५. ण सा० मोकसिंह सिहणसिंह परिवतेन " -६. (सुमातुः) श्री० पउमिणिसुश्राविकाया श्रेये " -७. (र्थ) सर्व संघ प्रासादार्थ (पर्व) वत्ति चतुष्किका द्व " -८. य कारितं । छ । चन्द्राक्क नं दतात् ॥ शुभमस्तु
(४) चौथा लेख पंक्ति-१. संवत १६५८ : । सद्धा " -२. ऋसना (समण) पवा " -३. इण लिषतं (सब संत) " ---४. सुजण प० कमलसी
(५) पांचवा लेख पंक्ति-१. संवत १६९३ वर्षे मग सुद १० षरतर " -२. गछे पं० गणनंदगणिभिः पं० वी " -३. र राज मुनि पं० गिर राज मुनि " --४. पं० हीराणंद प्रमुख (साधु) सहि " -५. तपं शकृतासं वर्षावास कारि
आशा है, अधिकारी विद्वान् इन तीनों- मध्यकालीन जैन स्थापत्य के भव्य जैन मंदिरों का अध्ययन एवं अनुसंधान करेंगे और जैन-स्थापत्य के तत्कालीन स्वरूप को रेखांकित करेंगे।
-डॉ. परमेश्वर सोलंकी
संपादक, तुलसी प्रज्ञा
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