Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 117
________________ आगम सूत्रों की वर्तमान भाषा बसमणी चिन्मय प्रज्ञा आगम सूत्रों की मूलभाषा अर्धमागधी रही है। भ० महावीर ने अपनी धर्मदेशना इसी भाषा में दी। इस भाषा का अपना वैशिट्य है। विविध भाषा-भाषी श्रोतृगण अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं । जैन वाङ्मय में अनेक स्थलों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। समवायांग सूत्र के ३४वें समवाय में तीर्थंकर चौतीस अतिशयों का वर्णन है, वहां उनके भाषातिशय के सम्बन्ध में कहा गया है-'तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं। उनके द्वारा भाष्यमाण अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप आदि जीवों के हित, कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है। औपपातिक सूत्र में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने जिस प्रकार काव्यानुशासन के मंगलाचरण में जैनी वाक्, जिसकी उन्होंने स्वयं अर्द्धमागधी भाषा के रूप में व्याख्या की है, की 'सर्वभाषापरिणताम्' पद से प्रशस्तता प्रकट की है, उसी प्रकार अलंकार तिलक के रचयिता वाग्भट्ट ने सर्वज्ञाश्रित अर्द्धमागधी भाषा की स्तवना करते हुए भाव व्यक्त किए हैं..-"हम उस अर्द्धमागधी भाषा का आदरपूर्वक ध्यान-स्तवन करते हैं, जो सबकी है, सर्वज्ञों द्वारा व्यवहृत है, समग्र भाषाओं में परिणत होने वाली है, सार्वजनीन है, सब भाषाओं का स्रोत है। भगवती सूत्र में इसे देव भाषा एवं पण्णवणा में इसका प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा है। भाषा-प्रयोग की अनेक विधाएं होती हैं। जहां श्रद्धा, प्रशस्ति तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहां भाषा अर्थवाद-प्रधान हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता । पर जहां भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप से समझ ले, तो कठिनाई पैदा नहीं होती । इसी दृष्टि से ये प्रसंग ज्ञेय और व्याख्येय हैं। भगवान् महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थंकर थे। इस समय उपलब्ध अर्धमागधी आगम वाङ्मय उन्हीं की देशना पर आधृत हैं। अर्धमागधी, प्राकृत का ही एक रूप है । अर्धमागधी के सम्बन्ध में दो अवधारणाएं हैं। पहली यह है कि यह भाषा मगध के आधे भाग में बोली जाती थी। इसलिए अर्धमागधी है। दूसरी अवधारणा यह है कि इसमें मागधी के आधे लक्षण पाए जाते हैं। मागधी के मुख्य लक्षण तीन हैं-अकारान्त पुल्लिग में प्रथमा विभक्ति में ए होना, र का ल तथा ष, स का श होना। इनमें से अर्धमागधी में पहला लक्षण पाया जाता है एवं कदाचित् र तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खण्ड २३ अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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