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२७१७६८० यह ९ से विभाजित नहीं अर्थात् यहां योग नहीं बैठता दान बैठता है ।
२६९०७०५ के अंकों का योग ९ से विभाजित नहीं है । यदि इसके स्थान पर २६८०६०५ लें तो यह ९ से विभाजित है । इसमें दान व योग दोनों क्रियाएं ठीक बैठती हैं ।
३५८
योग
२६९०७०५ २६९७५
पुनः
दूसरी बार भी क्रिया हो सकती है --
२६५३७४०
२६५३७४
२६८०६०५ २६८६५
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२६५३७४० यह ९ से विभाजित है।
२३८८३६६ यह भी ९ से विभाजित है २६८०६०५
२६८६५
२७३५२१७ यह भी ९ विभाजित है।
ऐसे अनेकों उदाहरण लेकर मैं कागज काले करता रहा तो पाया कि जघन नवतीर्नव मन्त्र सर्वव्यापी है । परन्तु योग से अधिक महत्व दान को आता है । योग के लिए एक शर्त है परन्तु दान के लिए कोई शर्त नहीं है । अत: दान सदा योग से श्रेष्ठ है । अथर्ववेद [ ७-२६-८) मन्त्र कहता है कि द्यौ, पृथ्वी, अन्तरिक्ष से अंजुली भर भर जमा कर दोनों हाथों से खुलकर दान कर । अथर्ववेद का दूसरा मन्त्र ( ३-३४-५ ) कहता है - शतहस्त समाहरः सहस्र हस्त सिंकर । यदि इस वेद आज्ञा का साक्षर पालन करेगा तो अवश्य दिवालिया हो जाएगा । समाधान यह है कि यहां मन्त्र से भावना का अधिक महत्व है । भोग व योग से दान श्रेष्ठ है । भोग तो पशु वृत्ति है, दान देव वृत्ति है | तू मनुष्य है देवता बन यही तेरा आदर्श है ।
२७०७४७० यह भी ९ से विभाजित है । २७०७४७० योग
२७७४७
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- प्रोफेसर प्रतापसिंह २२, सुभाषनगर
अजमेर रोड़, जयपुर (राज.)
तुलसी प्रज्ञा
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