Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 106
________________ सामवेद मन्त्र १७-९ तथा ९-२३ और अथर्ववेद मन्त्र ( १ - ८४ - १३ ) कहता हैजघन नवतीर्नव – ९० को ९ मारता है, छिन्न भिन्न करता है । यहां पर नौ के पहाड़े की चर्चा है - ९, १८, २७, ३६ असीम हो सकता है । इस नौ के पहाड़े की प्रत्येक संख्या १८=१+८=९, २७=२+७=९, ३ + ६ =९ ही रहती है । अर्थात् के पहाड़े की प्रत्येक संख्या ९ से विभाजित ९ से मारी जाती है । ३६ और ६३ में भी ९ घुसा बैठा है क्योंकि ३६ = ३ + ६ = ९, ६३=६ + ३ = ९ ही रहता है । साहित्य में अंक साहित्य वाले भी ० के ऋणी हैं, वे कहते हैं ... लोग कहत बिन्दी दिए, अंक दस गुनी होत । तिय लिलाट बिन्दी दिए अगनित हो उदोत ॥ देवनागरी अंक ३ की सरल आकृति में कितना विज्ञान तथा अध्यात्म भरा है कि ३ का ही दर्पण प्रतिबिम्ब ( mirror image ) ३ / ६, अर्थात् ३६ बन जाता है । इसी प्रकार ६ का दर्पण प्रतिबिम्ब ( mirror image ) ६ / ३ अर्थात् ६३ हो जाता है ! अतः दर्पण ३६ को ६३ और ६३ को ३६ बना देता है । विज्ञान इस चमत्कार को पार्श्व परिवर्तन ( Lateral inversion) कहता है । मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, हाथ कंगन को आर्सी क्या, दर्पण का चमत्कार आप प्रतिदिन देखते हैं परन्तु विज्ञान का यह चमत्कार देखते हुए मानव नहीं देखता है, नहीं जानता है । ऋग्वेद मन्त्र ( १०६१-४) कहता है-उत त्वः पश्यन्न दर्दश कि मानब देखते हुए भी नहीं देखना, नहीं जान पाता है । डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी यही कहते हैं कि Eges have they but they see not | क्योंकि जब मन कहीं और अटका होता है तब ऐसा ही होता है । Jain Education International वैशेषिक दर्शन सूत्र (१-१-२) मानव को इधर उधर दोनों तरफ देखकर चलने की नेक सलाह देता है— यतो अभ्युदय निः श्रेयस सिद्धि स धर्मः । मानव का हित भौतिक उन्नति इधर और उधर आध्यात्मिक उन्नति दोनों तरफ देखकर चलने में है । प्रकृति के साथ ६३ और परमात्मा की तरफ भी ६३ होकर चलना मानव हित में है । प्रकृति के साथ ६३ होना प्रकृति के अनुकूल आचरण करना जीवन बिताना है । यही आधिभौतिक उन्नति अर्थात् सांसारिक सुख सुविधाओं का योग करना है । परमात्मा की तरफ ६३ होने से निःश्रेयस अर्थात् आध्यात्मिक उन्नति कर परमानन्द मोक्ष की प्राप्ति है । प्रकृति के साथ ६३ हो कर रहने में यजुर्वेद मन्त्र (४०- १) सचेत करता है - तेन त्यक्तेन भुंजीथा मागृधः योग तथा भोग का अधिकार परमात्मा वेद द्वारा तुझे देता है कि त्याग भाव से भोग कर क्योंकि दूसरे को भी भोग का समान अधिकार है | अतः तू लालच मत कर, दूसरों को भी अपने समान भोगने दे । जो भोग तेरे कर्मानुसार परमात्मा तुझे देता है उस पर सन्तोष कर, दूसरे की थाली में घी अधिक मत देख । पराई पत्तल का भात मीठा लगता है, यह समझना भ्रम है, अशांति का कारण है । इस पर विभिन्न कोणों से मनन कर मोहभंग होगा। शांति और सन्तोष पाएगा । क्योंकि कस्यस्विद धनम्, यह धन किसका है, यह तो ईशावास्यमिदम् सर्वम् है । सबके ३५६ तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188