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'अथ'--एक अर्थ-विश्लेषण
ब्रजनारायण शर्मा
संस्कृत, प्राकृत, पाली तथा हिन्दी भाषा में 'अथ' शब्द का विवेचन विविध अर्थों में उपलब्ध होता है । इस बहु-आयामी शब्द की अर्थतः तथा शब्दत: व्याख्या करना यहां अभीष्ट है। प्राय: सभी भाषाओं में 'अथ' की शब्दत: अव्यय के रूप में व्याख्या की गयी है। यहां उक्त चारों भाषाओं में मतैक्य है। किन्तु जब अर्थतः विश्लेषण का प्रश्न उठाया जाता है तब इस अव्यय पद के विभिन्न अर्थ प्रस्तुत किये जाते हैं । यहां कतिपय अर्थों का विवेचन प्रथमतः संस्कृत, तत्पश्चात् प्राकृत, उसके अनन्तर पाली और अन्त में हिन्दी भाषा के विविध दार्शनिक, भाषा सम्बन्धी अथवा कोश ग्रन्थों के आधार पर किया जा रहा है।
अर्थविश्लेषण की प्रक्रिया प्रथमत: महर्षि पाणिनि से आरम्भ करने के पूर्व 'अथ' किन-किन संभावित अर्थों में प्रयुक्त किया जाता रहा है इसका किंचित् मात्र संकेत कर देना आवश्यक हैं । 'अथ' शब्द का प्रयोग निम्न अर्थों में प्राय किया जाता
__ अधिकारार्थ या आरम्भ अर्थ में; मंगल सूचक अर्थ में; अनन्तर अर्थ में ; प्रश्न पूछते या आरंभ करते समय प्रश्नवाचक अर्थ में ; समष्टि या सम्पूर्णता अर्थ में; संदेह या अनिश्चितता अर्थ में; विकल्प अर्थ में; निश्चितार्थ द्योतित करने के अर्थ में; अपि (भी) अर्थ में; यदि के सह सम्बन्धी अर्थ में; आदि से अवसान तक बतलाने के अर्थ में आदि । अमरकोशकार ने भी अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से ही संभवतः 'मंगलानन्तरारम्भ प्रश्न कात्स्न्येनथो अथ' (अर्थात् मंगल, अनन्तर, आरम्भ, प्रश्न तथा सम्पूर्ण रूप) अथो तथा अथ के पांच पर्याय द्योतित किये हैं। अधिकारसूचक अर्थ
महर्षि पतञ्जलि ने अपने सुविख्यात ग्रन्थ 'महाभाष्य' का श्रीगणेश 'अथ शब्दानुशासनम्' सूत्र से किया है। महाभाष्यकार की भांति योग सूत्रकार भी योगसूत्र का आरंभ उसी प्रकार 'अथ योगानुशासनम्' सूत्र द्वारा करता है। दोनों ग्रंथों में 'अथ' शब्द अधिकार अर्थात् आरंभ अर्थ का वाचक है। योगसूत्र के भाष्यकार व्यास 'अथ' पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं अथ इति अयम् अधिकारार्थः । योगानुशासनं शास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम्' (व्यास भाष्य पृ० २) अर्थात् योग सम्बन्धी समस्त विषयों का उपदेश करने वाला (व्याख्या करने वाला) शास्त्र यहां से आरम्भ होता है-ऐसा समझना चाहिये। तुलसी प्रज्ञा, लाडनूं : खंड २३ अंक ३
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