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निर्णय तो तभी संभव है जब डॉ० टॉटिया स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस संबंध में मौन हैं । मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डॉ० टॉटिया की उलझन समझता हूं एक ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें इक्यावन हजार का कुन्दकुन्द पुरस्कार देकर पुरस्कृत किया है तो दूसरी ओर वे 'जैन विश्वभारती' की सेवा में हैं, जब जिस मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें ? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती है कि डॉ० टॉटिया जैसा गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दे । कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही है । डॉ० सुदीपजी प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर ९६ में डॉ० टॉटियाजी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से है।"
तात्पर्य है कि हरिभद्र ने योगशतक को धवला के आधार पर बनाया है । क्या टॉटियाजी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्रसूरि और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ है ? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती) धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है । मुझे विश्वास भी नहीं होता है कि टॉटियाजी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डॉ. टांटिया जी को अपनी चुप्पी तोडकर भ्रम का निराकरण करना चाहिए।
वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान ने क्यों नहीं कहा हो ? यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टॉटियाजी से भी वरिष्ठ अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन बौद्ध विद्याओं के महामनिषी और स्वयं टॉटियाजी के गुरु पद्म विभूषण पं० दलसुख भाई हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक मानकर 'प्राकृत विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा । खैर यह सब प्रास्ताविक बातें थीं, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या है, कैसे उत्पन्न हुई और प्रस्तुत संगोष्ठी की क्या आवश्यकता है ? हमें तो व्यक्तियों के कथनों या वक्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी? और अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है ? भागमों को मूलभाषा-अर्धमागधी ..., (क) यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्मक्षेत्र और कार्यक्षेत्र दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था, अतः यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी बर्थात् अर्धमागधी रही होगी। व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती है । पुनः श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध हैं, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख है कि महावीर
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