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किमारव्यस्य राजर्षों पत्नी (७) । समष्टि या सम्पूर्णता वाचक अर्थ
महर्षि पिप्पलाद कबन्धी कात्यायन की जिज्ञासा का उपशमन करते हुए कहते हैं कि रयि और प्राण के मिथुनोत्पादन से सृष्टि की रचना होती है। इसी प्रसङ्ग में वे 'अथ' शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं ... 'अथादिव्य उदयन्यत्प्राची दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान्प्राणान् रमिषु संनिद्यन्ते । यद्दक्षिणां.. . संनिद्यत्ते ।' (१६) अर्थात् सूर्य अपनी प्राणशक्ति किरणों में डालकर समस्त संसार तक पहुंचाता है। पूर्व, प्रतीची (पश्चिम) उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व, अध: वायव्य-नैऋत्य आदि अवान्तर दिशाओं अर्थात समस्त दश दिशाओं में जितने भी रूप प्रतिलक्षित होते है, भासित होते हैं सभी रवि-रश्मियों से प्रकाशित होते हैं। समष्टि अर्थ में ही वैशेषिक सूत्र 'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः' की विवेचना की जा सकती है जहां धर्म की समस्त विवरण सहित व्याख्या इस सत्र से आरंभ करने का संकेत किया गया है। संदेह या अनिश्चित अर्थ
कभी-कभी अथ श द का प्रयोग संदेहमूलक तथ्य की अनिश्चितता ज्ञापित करने के लिए भी किया जाता है। जैसे नैयायिकों की दृष्टि से शब्द को अनित्य माना गया है जबकि मीमांसक उसे नित्य घोषिन करते हैं। अतः जब दोनों स्थितियां एकत्र संलग्न कर दी जाती है तब संदेह उत्पन्न होकर तत् पदार्थ को अनिश्चित बना देती है । यथा--
'शब्दो नित्योऽथानित्यः' विकल्पसूचक अर्थ
'अथ' शब्द 'वा' के साथ संयुक्त होकर विकल्प का बोध कराता है। संस्कृत वाङ्मय में जहां-जहां भी विकल्प की चर्चा आयी है वहां-वहां 'अथवा' शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुआ है । अथवा शब्द का प्रयोग महाकवि कालिदास ने स्थानस्थान पर पर्याप्त रूप से किया है । यहां रघुवंश के दो ही उद्धरण काफी होंगे
(१) गमिष्याम्युपहास्यताम ... ..''अथवा कृतवागद्वारे वंशेस्मिन् (१।३-४) (२) अथवा मदु वस्तु हिंसितुम् (८।४५)
बृहदारण्यक उपनिषद् में अथवा पद का प्रयोग कई स्थानों पर विकल्प अर्थ में में ही हुआ है । यथा- अथोऽयं वा आत्मा सर्वेषां भूतानां लोकः..."(१।४।१६) तथा 'अथेत्यभ्यमन्थत्स मुखाच्च योनेहस्ताभ्यां चाग्निमसृजत (१।४।६) उत्तर रामचरित्र में अथवा विकल्प अर्थ में व्यवहृत है यथा
'दीर्थे कि न सहस्रधाहमथवा रामेण किं दुष्करम्' (६।४०) निश्चितार्थद्योतक या व्याख्या अर्थ __संहिता-पंचक रहस्य की व्याख्या करते हुए तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षावल्ली के तृतीय अनुवाक के दूसरे मंत्र से छठे मंत्र तक लोक, ज्योति, विद्या, प्रजा एवं शरीर के
खण्ड २३, अंक ३
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