Book Title: Trini Ched Sutrani
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 4
________________ प्रस्तावना ... आचार और विचार, धर्म और दर्शन, ज्ञान और विज्ञान, न्याय और नीति आदि सभी दृष्टि से जैन आगम स्महित्य का भारतीय साहित्य जगत् में अपना एक विशिष्ट और गौरवपूर्ण स्थान है। इसका मुख्य कारण इसके उपदेष्टा या तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी की वीतरागता अथवा पूर्वधर श्रुतकेवली स्थविर भगवंतों के विशिष्ट ज्ञान की प्रसादी। जैन दृष्टि से जिन्होंने पूर्णरूपेण राग-द्वेष को जीत लिया, वे जिन, तीर्थंकर, सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाते हैं, उनके मुखारविन्द से निकली हुई वाणी सम्पूर्ण दोषों से रहित होती है यानी वीतरागता के कारण उनकी वाणी में किञ्चित् मात्र दोष की संभावना नहीं रहती और न ही उसमें पूर्वापर विरोध ही होता है। ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों के पावन वचनों को गणधर भगवन्त अपनी विमल बुद्धि से सूत्र रूप में संकलन करते हैं, जो अंग साहित्य के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त जैन साहित्य में अंग-बाह्य साहित्य को भी मान्य किया गया है, जो यद्यपि तीर्थंकर प्रणीत तो नहीं पर पूर्वधर श्रुतकेवली स्थविर भगवन्त द्वारा रचित होता है। ये श्रुतकेवली, सूत्र और अर्थ दोनों दृष्टि से अंग साहित्य में पारंगत होते हैं। अतएव ये जो कुछ भी रचना करते हैं, उनमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता है। दोनों में मात्र अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष जानते हैं जबकि श्रुत केवली परोक्ष रूप से जानते हैं। साथ ही उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं क्योंकि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं। . .. जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम वर्गीकरण समवायांग सूत्र में मिलता है। वहाँ पूर्व और अंग के रूप में इसका विभाजन किया गया है। संख्या की दृष्टि से पूर्व चौदह और अंग बारह होते हैं। दूसरा वर्गीकरण नंदी सूत्र में मिलता है, वहाँ सम्पूर्ण आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंग-बाह्य के रूप में निरूपित किया गया है। तीसरा वर्गीकरण विषय सामग्री के हिसाब से द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग और चारित्रानुयोग के रूप में भी हुआ। चौथा और सब से अर्वाचीन आगमों का वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल और छेद के रूप में किया गया। यह वर्गीकरण सभी में उत्तरवर्ती है जो वर्तमान में प्रचलित है। प्रस्तुत आगम छेद सूत्र है। छेद शब्द जैन परम्परा के लिए नवीन नहीं है। चारित्र के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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