Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 4
________________ मान लिया है, लेकिन एकही इन्द्रियसे अनेक विषयों का ज्ञान होनेका मोका आजाय याने एकही स्पर्शनसे शीत, उष्णादि जानने का, रसनासे तिक्तादि अनेकरस, चक्षुसे अनेक रूप और श्रोत्रसे अनेक शब्द जानने का मौका आजाय तो फिर ज्ञाताकी धारणा को आगे करनीही होगी. इसी तरहसे वाचकजी महाराज फरमाते हैं कि जिसकी धारणा आत्मीयकल्याण के ध्येयवाली नहीं है वह मनुष्य अपना ज्ञान आत्मकल्याण ध्येय से नहीं करके पौगलिकके ध्येयसे ही करता है, उस ज्ञानका प्रयोजनभी पौङ्गलिकही सिद्ध करेगा, इससे उस पौगलिक ध्येयषालेका ज्ञान अज्ञानही है. याने ज्ञानका सम्यकपणा अच्छी धारणा से ही होता है, और अच्छधारणावालेके ज्ञानका ही प्रमाणविभाग दिखाया है ! (११) अन्यदर्शनकारों के अनुकरणसे ही इस तत्त्वार्थकी रचना होनेसे ही तो 'सदसतो' इस सूत्र में अन्यधारणावाले को उन्मत्त जैसा कदुशब्द लगाया है, याने अन्यदर्शनकारोंका अयोग्य और असत्य प्रचार देखके ही इन अनुकरणकारको घृणा आइ होगी, और उसी घृणासे यह कठोर कथन हुआ होगा । (१२) जैसे दीपकज्योति समान होने पर भी काचक्रे रंगके अनुकरणसे ही मिस्र मिश्र प्रकाश होता है, इसी तरहसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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