Book Title: Tattva Nirnayprasad Author(s): Vallabhvijay Publisher: Amarchand P Parmar View full book textPage 7
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ......... .... १२४ र तिसका वर्णन .... १३९ . १४३ 0 -७० तत्वनिर्णय करनेको ग्रंथकारका उपदेश .... ... .... .... असत् पदार्थके अग्राह्य में हेतु .... .... ..... .... .... .... १२३ प्रकृतिसें विनयवाले पुरुषही विनयवंत हो सकते हैं ..... ग्राह्य पदार्थका लक्षण, अतत्वको तत्व मानकर ग्रहण करने से पश्चात्ताप होता है .... .... ..... .... ... ... ... ... १२४ तत्वज्ञान प्राप्तिके उपायका वर्णन ... १२५ देवके स्वरूपका और उनके कृत्योंका किंचित् वर्णन.... .... .... कौन देव नमकारके योग्य है, तिसका निर्णय प्रतिपक्षियोंसें पूछना ब्रह्माजीका शिर कटनेका, हरीके नेत्र रोगका, महादेवका लिंग टूटनेका, सूर्यका शरीर त्राछा जानेका, अग्निका सर्व भक्षी होनेका, चंद्रमा कलंकवाला होनेका, इंद्र सहस्र भगवाला होनेका वर्णन.... अईन्कोही क्यों मानना तिसके हेतुका वर्णन .... .... ... १३८ भगवतकी वाणी जो दूषण न होने चाहिये और जितने गुग होने __ चाहिये तिनका वर्णन जिस देवको भक्तिसें अंगीकार करना चाहिये तिसका वर्णन .... १४३ भगवानको नमस्कार मात्रसेंभी फलकी प्राप्तिका होना .... ... यथार्थ भगवानको जो नमस्कार नहीं करता है और कल्पितको करे । उसके हेतुका वर्णन .... .... ... .... .... .... .... १४४ स्तुतिकार अपने आपको पक्षपात रहित सिद्ध करते हैं .... .... पक्षपात रहित होने में हेतु .... .... ..... .... .... .... सर्व मतके अधिष्ठातायोमस एक कोई तो सत्यवक्ता होना चाहिये। __ और तिसकी गवेपणा करनी चाहिये ऐसा ग्रंथकारका उपदेश .... १४५ पक्षपातरहित ग्रंथकारका नमस्कार .... .... .... ... .... ५) पञ्चम स्तंभ-लोकतत्वनिर्णयका विशेष वर्णन १४६-१७८ सृष्टिवादियोंके विवादका कारण.... .... .... .... .... ... १४६ महेश्वर मतवालेकी सृष्टिका स्वरूप .... .... १४७ कितनेक अहंकारी ईश्वरसें, कितनेक सोम और अग्रिसे, सृष्टिकी उत्पत्ति मानते हैं .... .... .... .... .... .... वैशेषिक मतकी, कश्यपकी रची सृष्टिका वर्णन .... .... .... १४७ मनुका रचा जगत्का वर्णन .... .... .... .... .... .... १४८ ब्रह्मा, विष्णु, महादेवादिका रचा कालकृत, कपिल, बौद्ध शून्यादि जगत् १५१ पुरुषसें पुरुषमयी, देवसें, स्वभावसे, अक्षरब्रह्मके क्षरणेसें, अंडेसे, स्वतोही भूतोंके विकारसें अनेक रूपमयी, उत्पन्न हुवा जगतका वर्णन.... .... १५२ है और कल्पि १४४ For Private And PersonalPage Navigation
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