Book Title: Tao Upnishad Part 01 Author(s): Osho Rajnish Publisher: Rebel Publishing House PunaPage 16
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free सब पता है। जो नहीं मिला है, उसकी भी खबर दे सकता है कि मिल गया है। इसलिए मन की डिसेप्टिविटी, उसकी जो प्रवंचकता है, उसके सब रूप ठीक से समझ लेने जरूरी हैं। हुआंग पो के सामने एक युवक आया है और कह रहा है कि मैं शांत हो गया हूं। हुआंग पो पूछता है, फिर तुम यहां किसलिए आए हो? अगर तुम शांत हो गए हो, तो तुम यहां किसलिए आए हो? जाओ! क्योंकि मैं तो सिर्फ अशांत लोगों का इलाज करता हूं। युवक न तो जा सकता है, क्योंकि देखता है, हआंग पो किसी और ही ढंग से शांत मालूम होता है। कहता है, नहीं, कुछ दिन तो रुकने की आज्ञा हुआंग पो कहता है, शांत लोगों के लिए रुकने की कोई भी आज्ञा नहीं है। जरा सोच कर बाहर से फिर आओ। अशांत तो नहीं हो? क्योंकि मैं नहीं सोचता हूं, हुआंग पो कहता है, कि तुम दो सौ मील पैदल चल कर मुझे बताने सिर्फ यह आओगे कि मैं शांत हूं। दो सौ मील पैदल चल कर मुझे यह बताने आओगे कि मैं शांत हूं! और अगर इसके लिए आए हो, तो बात खतम हो गई। धन्यवाद! परमात्मा करे कि तुम सच में ही शांत होओ। लेकिन एक दफा बाहर जाकर फिर सोच आओ। युवक बाहर जाता है। और तभी हुआंग पो कहता है, अब बाहर जाने की कोई जरूरत नहीं, लौट आओ। क्योंकि अगर अभी इतनी भी अशांति बाकी है कि सोचना है कि शांत हूं या नहीं, वापस आ जाओ। तुम्हारी झिझक ने सब कुछ कह दिया है। तुम सोचने जा रहे हो बाहर कि मैं शांत हूं या नहीं, यह काफी अशांति है। हुआंग पो कहता है, रुको! हुआंग पो कहता है, व्हेयरएवर देयर इज़ च्वॉइस-जहां भी चुनाव है, वहीं अशांति है। अभी तुम चुनने जा रहे हो कि शांत हूं कि अशांत हूं? तुम पर्याप्त अशांत हो। बैठो! मैं तुम्हारे काम पड़ सकता हूं। लेकिन तभी, जब तुम अपने मन की धोखे देने की कुशलता को समझ जाओ। तुम अशांत हो और मन तुम्हें धोखा दे रहा है कि तुम शांत हो। तुम्हें कुछ पता नहीं है और तुम कहते हो, मुझे मालूम है कि भीतर आत्मा है। तुम्हें कुछ पता नहीं और तुम कहते हो, यह सारा संसार परमात्मा ने बनाया है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है और तुम कहते हो कि आत्मा अमर है। मन के इस धोखे में जो पड़ेगा, वह फिर उसे न जान पाएगा जो जानने जैसा है। और उसे न जान पाए, इसलिए मन ये सारे धोखे निर्मित करता है। तो जब तक तुम्हें पता चलता हो कि विचार चल रहा है और मुझे पता चल रहा है कि विचार चल रहा है, तब तक तुम जानना कि मन ने अपने दो हिस्से किए: एक हिस्सा विचार चलाने वाला, और एक हिस्सा एक विचार का कि मैं विचार नहीं हैं, मैं निर्विचार है। यह मन का ही द्वैत है। सच तो यह है कि मन के बाहर द्वैत होता ही नहीं। मन के बाहर अद्वैत हो जाता है। और अद्वैत का कोई बोध नहीं होता, ऐसा बोध नहीं होता कि तुम कह सको, ऐसा है। ज्यादा से ज्यादा तुम इतना ही कह सकोगे, ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है। आज इतना, कल फिर हम बैठे। और आप सब पूछ सकते हैं। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेजPage Navigation
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