Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 14
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free तो ऐसी घटना घटती है, जब कि आप मन से सोच-सोच कर, सन-सन कर, समझ-समझ कर यह आकांक्षा मन में बना लेते हैं कि निर्विचार हो जाऊं। क्योंकि सुना कि पवित्र है वही, सुना कि परम आनंद है वही, सुना कि वहीं है समाधि का सुख, सुना कि सब फीका पड़ जाता है, वहीं है आनंद, तो फिर आकांक्षा बनती है, वासना बनती है कि मैं निर्विचार हो जाऊं। अब ध्यान रखें, निर्विचार होने को कभी वासना नहीं बनाया जा सकता। पर बनती है। असल में मन की तरकीब ही यही है कि आप कुछ भी कहो, वह उसको वासना में निर्मित कर देता है। वह कहता है, मोक्ष चाहिए? मोक्ष में बड़ा आनंद है, मोक्ष चाहिए? मोक्ष की कोशिश करो, खोजो, मिल जाएगा। अब मोक्ष की खोज शुरू हो गई। और जिस मोक्ष को मन खोजता है, वह मोक्ष नहीं है। असल में, जहां मन नहीं होता, वहां मोक्ष है। इसलिए मन का खोजा हुआ मोक्ष तो मोक्ष नहीं हो सकता। निर्विचार की बात सुनते-सुनते मन में बैठ जाता है, निर्विचार होना चाहिए। ध्यान रखें, निर्विचार होना चाहिए, यह एक विचार है। यह लाओत्से को सुन कर आ गया हो खयाल में, यह मुझे सुन कर खयाल में आ जाए, किसी और को सुन कर खयाल में आ जाए, किसी किताब से पढ़ लें और यह खयाल में आ जाए कि निर्विचार होना चाहिए। पर यह आपके पास क्या है-निर्विचार होना? यह एक विचार है। सिर्फ निर्विचार होना है, इसलिए विचार नहीं है, इस भूल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। दिस इज़ ए मोड ऑफ थॉट, टु बी थॉटलेस। यह एक प्रकार हुआ विचार का। अब अगर इस विचार पर आप जिद्द देकर पड़ जाएं, तो मन आपको दूसरा धोखा देगा। वह कहेगा कि देखो, भीतर तो निर्विचार है, आस-पास विचार घूम रहे हैं; आर-पार चल रहे हैं विचार, मैं तो बाहर खड़ा हुआ हूं। लेकिन मैं जो बाहर खड़ा हुआ हूं, यह क्या है? इज़ इट मोर दैन ए थॉट? यह जो मैं बाहर खड़ा हूं, यह क्या है? यह एक विचार है। पर इससे भी थोड़ा सुख मिलेगा, थोड़ी शांति मिलेगी। वह शांति नहीं, जो कालजयी है; वह शांति नहीं, जिसका कोई नाम नहीं है। न, इससे एक शांति मिलेगी, जो कि मन को सदा मिलती है, जब भी वह अपनी किसी वासना को पूरा कर लेता है। यह एक वासना थी मन में कि निर्विचार हो जाऊं। अब यह विचार बीच में खड़ा हो गया कि मैं निर्विचार हूं। मन को बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो, मैं निर्विचार भी हो गया। और मन बड़ा कुशल है। एक छोटे से कोने में एक विचार को खड़ा कर देगा कि मैं निर्विचार हं, और चारों तरफ विचार घूमते रहेंगे। और चारों तरफ कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भीतर जहां मैं कह रहा हूं कि मैं निर्विचार हूं, वहां भी विचार अभी खड़ा हुआ है। वहां भी विचार मौजूद है। हां, ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि वहां जरा एक थिर विचार खड़ा है, बाकी विचार चल रहे हैं। बाकी विचार चल रहे हैं-दुकान है, बाजार है, काम है, धंधा है-वे चारों तरफ चल रहे हैं। और यह एक विचार, कि मैं निर्विचार हं, खड़ा हो गया है बीच में। लेकिन अगर इसको भी बहुत गौर से देखेंगे तो यह भी पूरा खड़ा हुआ नहीं मिलेगा, क्योंकि कोई विचार पूरा खड़ा हुआ नहीं हो सकता। यह भी दीए की लौ की भांति नीचा-ऊंचा होता रहेगा। एक क्षण को लगेगा, हूं; एक क्षण को लगेगा, नहीं हूं। एक क्षण को लगेगा कि अरे, ये तो विचार भीतर घुस गए! एक क्षण को लगेगा, मैं फिर बाहर हं। एक क्षण को लगेगा, मैं फिर खो गया। यह बस ऐसा ही होता रहेगा। यह, क्योंकि कोई भी विचार परिवर्तन के बाहर नहीं हो सकता-यह विचार भी नहीं कि मैं निर्विचार हूं-यह भी डोलता रहेगा, फ्लक्चुएटिंग, नीचा-ऊंचा, इधर-उधर पूरे वक्त होता रहेगा। क्षण भर को ऐसा लगेगा कि हूं, और लगा नहीं कि गया। नहीं, ताओ ऐसी स्थिति की बात नहीं है। ऋत और बात है। नहीं, विचार तो हैं ही नहीं चारों तरफ, यह विचार भी नहीं है कि मैं निर्विचार हूं। कोई भी नहीं बचा जो कह सके, मैं निर्विचार हूं। भीतर कोई है ही नहीं, निपट सन्नाटा है। चुप्पी के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह जानने वाला भी नहीं है, खड़े होकर जो कह दे कि देखो, मैं बिलकुल चुप हूं। इतना भी अगर मौजूद है, तो जानना, मन आखिरी धोखा दे रहा है-दि लास्ट डिसेप्शन! और इसी धोखे में आए कि मन फौरन आपको वापस पूरे चक्कर में खड़ा कर देगा एक सेकेंड में। अगर आप इस खयाल में आ गए कि अरे, हो गया निर्विचार, आप वापस पहंच गए गहनतम नर्क में। यह एक विचार करीब-करीब ऐसे ही काम करता है, जैसा बच्चे लूडो का खेल खेलते हैं। चढ़ते हैं, बड़ी मुश्किल लगाते हैं, नसेनियां, सीढियां, और फिर एक सांप के मंह पर पड़ते हैं और सरक कर नीचे सांप की पूंछ पर आ जाते हैं। अगर एक भी विचार का खयाल आ गया, मैं निर्विचार हूं, यह भी खयाल आ गया, तो सांप के मुंह में पड़े आप। आप नीचे उतर जाएंगे; वे सब सीढ़ियां जो चढ़े थे, वे सब बेकार हो गई हैं। इसलिए बोधिधर्म ने कहा, आई डू नॉट नो, मैं नहीं जानता। कौन खड़ा है आपके सामने, मुझे खुद ही पता नहीं। किसी ने बाद में बोधिधर्म को कहा कि वू बहुत दुखी और पीड़ित हुआ है। सम्राट बहुत अपमानित हुआ है। आपने इस तरह के जवाब दिए! सम्राट को ऐसे जवाब नहीं देने थे। आपने कह दिया कि मुझे पता ही नहीं कौन है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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