Book Title: Swadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Author(s): Rajiv Dikshit
Publisher: Swadeshi Prakashan

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Page 41
________________ %3 शीते वर्षाषु चाद्यांस्त्रीन वसन्तेऽन्त्यांन रमान्मजेत् स्वादु निदाघे, शरदि स्वादुतिक्तकषायकान्। __ शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मधनान्तयोः।। - अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा। नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्वाधिक्यमृतावृतौ ।। अर्थ : संक्षिप्त ऋतुचर्या-शीतकाल अर्थात् हेमन्त शिशिर ऋतु में तथा प्राविट् और वर्षा काल में मधुर, अम्ल, और लवण रसों का सेवन वसन्त काल में तिक्त कटु और कसाय रस का सेवन, ग्रीष्मकाल में मधुर रस का सेवन, शरद में मधुरतिक्त कषाय रसों का सेवन करना चाहिये। इसी प्रकार शरद और वसन्त ऋतु में रूक्ष आहारों का सेवन तथा गर्म (ग्रीष्म ऋतु) घनान्त (शरद् ऋतु) में शीतल अन्नपान का सेवन करना चाहिये। इससे विपरीत स्निग्ध आहार का सेवन, हेमन्त, शिशिर ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में करना चाहिए। तथा इससे विपरीत हेमन्त शिशिर वर्षा और वसन्त ऋतु में उष्ण अन्नपान का सेवन करना चाहिए। यह संक्षेप में ऋतुओं की चर्या बतायी गयी है। सभी रसो का अभ्यास अर्थात् प्रयोग सभी ऋतुओं में करनी चाहिए। किन्तु जिन-जिन ऋतुओं में जिन-जिन रसों का सेवन बताया गया है उनका अधिकरूप में सेवन उन-उन ऋतु में करना चाहिये। ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहावंतुसन्धिरिति स्मृतः। तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात्।। असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात् ।। इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाहृदयसंहितायां सूत्रस्थाने ऋतु चर्या नाम तृतोयोऽध्यायः ।। अर्थ : ऋतु संन्धि-एक ऋतु के अन्त के सात दिन और अगले ऋतु के आदिका सात दिन इन चौदह दिनों का नाम ऋतुसन्धि कही जाती है। इस ऋतुसन्धि में पहले ऋतु में सेवन किए गए नियमों का धीरे-धीरे त्याग किय जाता है। तथा आगे के ऋतु में बताये गए नियमों का धीरे-धीरे पालन किय जाता है, यदि इन नियमों का पालन न करते हुए सहसा पूर्व के ऋतु के नियम का या और आगे के ऋतु में बताए गये नियमों का संहसा सेवन किया जार तो प्रकृति के विपरीत रोग हो जाते हैं। विश्लेषण : पादेनापथ्यमभ्यस्तं पादपादेन वा त्यजेत् । इस नियम का पालन 40

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