Book Title: Swadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Author(s): Rajiv Dikshit
Publisher: Swadeshi Prakashan

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Page 123
________________ कास रोग को शान्त करता है। क्षारः सर्वश्च परमं तीक्ष्णोषाः कृमिजिल्लघुः । पित्तासृग्दूषरणः पाकी छेद्यहृद्यो विदारणः।। __ अपथ्यः कटुलावण्याच्छनौजःकेशचक्षुषाम् ।। अर्थ : सामान्यतः सभी क्षारों के गुण-सभी क्षार उत्तम तीक्ष्ण उष्ण कृमि नाशक और लघु होते हैं। पित्त और रक्त को दूषित करते हैं। व्रणों को पकाते हैं। मेदा कफ और शरीर के भिन्न भागों में उत्पन्न सभी ग्रन्थियों का छेदन करते है। हृदय को हानि करते हैं। पके हुये व्रणों का विदारण करते हैं। ये रस में कटु और नमकीन होने से शुक्र ओज केश और नेत्रों के लिए अपथ्य (हानिकर) है। __ हिडुः वातकफानाहशूलध्नं पित्तकोपनम् ।। कटुपाकरसं रूच्यं दीपनं पाचनं लघु । अर्थ : हींग वात विकार, कफ विकार, आनाह और शूल रोग को नष्ट करता है, पित्त प्रकोपक है, रस और विपाक में कटु होता है। यह भोजन में रूचि उत्पादक अग्नि दीपक अन्न का पाचक और लघु होता है। कषाया मधुरा पाके रूक्षा विलवणा लघुः।। दीपनी पाचनी मेध्या वयसः स्थापनी परम्। उष्णवीर्या सराऽऽयुष्या बुद्धीन्द्रियबलप्रदा।। कुष्ठवैवर्ण्यवैस्वर्यपुराणविषमज्वरान्। शिरोऽक्षिपाण्डुहृद्रोगकामलाग्रहणीगदान ।। सशोषशोफातीसार मेदोमोहवामिक्रिमीन् । श्वासकासप्रसेकार्श:प्लीहानाहगरोदरान्। विबन्धं स्रोतसां गुल्ममूरूस्तम्भमरोचकान्।। विबन्धं स्रोतसां गुल्ममूरूस्तम्भमरोचकान्। हरीतकी जयेद्वयाधींस्तां स्तांश्च कफवातजान ।। अर्थ : हर्रे का गुण-यह रस में कषाय विपाक में मधुर रूक्ष, लवण रसरहित, लघु अग्निदीपक, अन्नपाचक, मेधावर्धक, वय को उतम रूप से स्थिर रखने वाली (रसायन) वीर्य में उष्ण, मल सारक, आयु वर्धक, बुद्धि इन्द्रिय को बल देने वाली है। कुष्ठ विवर्णता, स्वर भेद, जीर्ण विषमज्वर, शिरोरोग, नेत्ररोग, पाण्डुरोग, हृदयरोग, कामला, ग्रहणी, शोष, शोथ, अतिसार, मेदा रोग मोह, वमन रोग, कृमि रोग, श्वास, कास, प्रसेक (मुँह से पानी गिरना) अर्श प्लीहा वृद्धि, आनाह, गर (कृत्रिम विष विकार) उदररोग स्रोतों का विबन्ध, गुल्म, उरूस्तम्भ और अरोचक, 122

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