Book Title: Swadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Author(s): Rajiv Dikshit
Publisher: Swadeshi Prakashan

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Page 82
________________ दुर्नामोदर शूलेषु कुष्ठ महाविशुद्धिषु। मूत्रप्रयोगसाध्येषु गव्यं मूत्रं प्रयोजयेत्।। दुर्नामोदर शूलेषु कुष्ठ मेहाविशुद्धिषु । आनाह शीफ गुल्मेषु पाण्डोग च माहिषम्।। __ कास श्वासापहं शोफ व!ग्रहे हितम्। सक्षारं तिक्त कटुकमुर्ण वातघ्नमाविकम्।। दीपनं कदु तीक्ष्णोर्ण वात चेतो विकारनुत्। आश्वं कफ हरं मूत्रं कृमिददुषु शस्यते।। सर्तिक्तं लवणं भेदि वातघ्नं पित्त कोपनम्। तीक्ष्णं क्षारं किलासे च नाम मूत्र प्रयोजयेत।। गरचेतो विकारघ्नं तीक्ष्णं ग्रहणी रोगनुत् । दीपनं गार्दभं मूत्रं कृमिवात कफापहम् ।। शीप कुष्ठोदरोन्माद मारूत क्रिमिनाशनम्। अर्शोघ्नं कारभं मूत्रं मानुष च विषापहम् ।। अर्थ : चरन ने भी वागभट्ट की तरह आठ मूत्र का ही निर्देश किया है पर सुश्रुत ने भैंस के स्थान पर मनुष्य मूत्र का निर्देश किया है। प्रायः सामान्य रूप से मनुष्य के मूत्र का प्रयोग नहीं होता है पर जंगम और स्थावर विष में अन्तः प्रयोग और बाहय प्रयोग में विशेष लाभकर होता है। औश्र यह अनेकों बार अनुभुत है। सर्प विष में तबतक नरमूत्र पिलाया जाता है जब तक विष पीडित व्यक्ति को स्वाद प्रतीत नहीं होता स्वाद प्रतीत होने पर पिलाना बन्द कर देते है। बिच्छू के काटने पर एक कप मूत्र पिलाने से ही तत्काल लाभ होता है। वरे, मधुमक्खी आदि के काटने पर दंश स्थान पर मालिस करने से लाभ होता है। नर मूत्र प्रयोग में आजकल कैन्सर जैसे भयंकर रोग में लाभ देखा जाता है। चरक ने नरमूत्र को रसायन माना है। जैसाकि नरमूत्रं गरं हन्ति सेवितं तद्रसायनम्। अर्थ : कहा गया है। प्राचीन काल में नरमूत्र का प्रयोग रोग शान्ति के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होता था केवल नरमूत्र से सभी रोग की चिकित्सा एक शिवाम्बुकल्प नामक पुस्तक में लिखा गया है यद्यपि पुस्तक अप्राप्य है। तथापि सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के सरस्वती भवन पुस्तकालय के हस्त लिखित ग्रन्थों में बंगला लिपी में लिखा हुआ वर्तमान है। बम्बई से प्रकाशित स्वमूत्र चिकित्सा ग्रन्थ के अन्तिम भाग में इस पुस्तक का प्रकाशन भी हो चुका है। इसे रसायन मानते हुये चरक और वाग्भट्ट ने सामान्य मूत्र वर्ग में मनुष्य मूत्र का विवेचन नहीं किया है। ODODD

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